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________________ बोलते नहीं थे । दधि बरदल चतुर आदमी था : भोजन और वाद-विवाद को तीन और छह जैसा मानता था । आहिना ने उसकी ओर देखते हुए कहा : “हे कृष्ण, तुम क्या दधि, चुप्पी ही साधे रहोगे ?" " नहीं कोंवर, वैसी बात नहीं है । पर देखता हूँ तुम तो खा ही नहीं रहे हो ।" वर के कहे जाते ही आहिना मानो आसमान से जा लगा। बड़ा आत्मसन्तोष मिला उसे । बोला : "तुम तो पढ़े-लिखे हो भाई । सब समझते ही हो। हमें चिलाराय ने बसाया था । कृष्ण, कृष्ण !" इस बार जयराम मेधि ने मौन भंग किया : "कोंवर की दुम लगी होने पर तो यह हाल है, नहीं क्या करते । कुल को पहचानना इतना सरल नहीं ।" आहिना ने चिड़चिड़े स्वर में कहा : "कृष्ण, कृष्ण ! तुम्हारे जैसा हमारे वंश का नाम मिटा नहीं है । तुम्हारे तो पूर्वज लालुङ थे, अब कहीं कोच की पंक्ति में आये हैं ।” धनपुर भात परसे तक हाथ चाट रहा था । बोला : "ऐसे ही तर्क-वितर्कों से देश चौपट हुआ है । आहोम राजाओं के समय बापदादे घुटनों तक धोती खूंटे वीर साहसी कहलाते थे । अंगरेज़ों के काल में लोग लहँगा धारण कर लुगाई बन रहे हैं ।" राजा के बेटे होते तो पता तभी मधु आकर भात और तरकारी परोस गया । धनपुर उधर जुट गया। अचानक हिना कोंवर के मसूड़े में मछली का काँटा जा अटका । काँटा निकालकर उसने एक घूंट पानी पिया । तब कहा : "अरे, तुम लोग तो सब रैयत - मज़दूर थे। कछारी राजे तुम सबको लस्कर कहते थे, और आहोम राजे 'लहकर' । इसलिए तुम्हें अब कुल की ओर देखते डर लगता है । कृष्ण-कृष्ण !" "तब रैयत थे, मगर अब नहीं देखते कि हुए हैं। ज़माना अब रैय्यत मज़दूर का ही है, माय के राजा का अब क्या धरा है ? आहोम, गये ।" धनपुर हँस दिया। होंठ पर लगे भात के दाने पत्तल पर गिरे । बोला : हम सभी स्वराज्य के सैनिक बने राजा - मन्त्री का नहीं । तुम्हारे कोच, कछारी सभी राजे तो चले आहिना बोला : "जरा अंगरेज़ चले जायें तो देखना ! हम मायड़ में राजा बनाते हैं या नहीं, कृष्ण-कृष्ण !" धनपुर ने कहा : 36 / मृत्युंजय
SR No.090552
Book TitleMrutyunjaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBirendrakumar Bhattacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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