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"क्यो ?"
"मुझे ग़लत समझकर ही तुम जाना चाहती हो, इसीलिए ।" अनुपमा ने कहा । "यहाँ कुछ दिन और ठहरो । बच्चे को थोड़ा और बड़ा हो लेने दो । मैं ख़ ुद ही तुम्हें पहुँचा आऊँगी।”
"पर भाभी, मेरा भी तो एक अपना घर है ।"
अनुपमा कुछ बोली नहीं। इसके विपरीत कोई तर्क देना सहज तो था नहीं । तभी डिमि ने कहा :
" गोसाइनजी, आप यहाँ कुछ दिन और ठहर जाइये । वहाँ पुलिसवालों ने आपके घर को भी घर जैसा तो रहने नहीं दिया है। इन लोगों ने वहाँ कुछ भी नहीं छोड़ा होगा। मैं आदमी भेजकर ख़बर करवा दूंगी। उसके बाद ही जाइयेगा । अभी यहीं रहिये ।"
इस बार अनुपमा ने गोसाइनजी की एक भी नहीं सुनी। उसने स्पष्ट शब्दों में कहा :
"तुम जाओ, डिमि । ननद अभी यहीं रहेंगी ।"
डिम चली गयी ।
उसके जाने पर अनुपमा ने गोसाइन से कहा :
" समझ रही हो न । देश में कुछ हो गया है । मुझे अब अच्छी तरह से महसूस हो रहा है । नहीं तो इस गारो युवती तक का मन भला इस प्रकार विद्रोही क्यों हो जाता ? पुलिस के आदमी काम क्यों छोड़ते ? सैकड़ों जन इस प्रकार जेल क्यों जाते ? लगता है इसका असर मुझ पर भी पड़ रहा है । पर समझ नहीं पा रही हूँ कि यह कैसा असर है ? भला रूपनारायण और डिमि को देखकर मैं अपना दुख क्यों भूल गयी ? पुलिस अधिकारी से मैंने विवाह भले ही किया है, पर औरों की नाई ही तो मेरा मन है । केवल अपने बारे में ही सोचने से कुछ नहीं होगा । दूसरों की बात भी सुननी होगी, सोचने होगी ।"
गोसाइन कुछ नहीं बोली। उन्हें लगा, काश ! गोसाईजी होते तो अनुपमा के मुँह से यह सब सुनकर कितने खुश होते ! गोसाइन को इस बार बहुत संतोष मिला । पर वह समझ नहीं पा रही थी कि अनुपमा के उन मनोभावों को किस तरह नये साँचे में ढाला जाय । ये सारी बातें तो हमारे सेनानी ही जानते हैं । कुछ लोग जेल में हैं, कुछ भागे-भागे फिर रहे हैं । और कुछ लोग इस काम में हाथ बटाने के लिए समर्पित हो रहे हैं। जो शहीद हो गये हैं, उनका स्थान देश के और-और सपूत ले रहे हैं ।
अनुपमा ने गोसाइनजी को और भी कई बातों से अवगत कराया :
" जेल में बन्द हमारे कार्यकर्ताओं ने भारतमाता की शपथ लेकर अपना संकल्प
272 / मृत्युंजय