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________________ डिमि कुछ बोली नहीं। बस, अपलक नेत्रों से गोसाइनजी को देखती रही। रात काफ़ी भीग चुकी थी। घड़ी ने टन्-टन् बारह बजाये। तब भी बातें करती हुई दोनों जाग रही थीं। अनुपमा आरती का विवाह देखने चली गयी थी। वहाँ कोई बाजा नहीं बज रहा था। पुरोहित बरठाकुर नहीं थे। कन्या के पिता शइकीया भी नहीं थे। कन्या के बड़े भाई ने ही कन्यादान की रस्म पूरी की। डिमि और गोसाइन पिछवाड़े बरामदे में बैठी पुलिस के आने की आशंका कर रही थीं। बीच-बीच में बातें भी करती जा रही थीं। कुछ भी बाकी बचा नहीं था। बातों ही बातों में डिमि ने धनपुर से प्रेम हो जाने की बात भी स्वीकार की। गोसाइन को रेलगाड़ी के उलटने की घटना का पूरा-पूरा वर्णन सुनने का मौक़ा तो मिला ही, आज बहुत दिनों के बाद उन्होंने दिल खोलकर बात-चीत करने का सुयोग भी पाया था। बच्चा भी आज ठीक से सोया हुआ था। बीच में उसकी नींद नहीं उचटी थी। बाहर ठण्डक बढ़ती जा रही थी। अँधेरे में सितारों के सिवा और कुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा था। उन्हीं के बीच कहीं धनपुर या गोसाईजी भी होगे, ऐसा सोचकर मानो उन्हें पाने के लिए ही गोसाइन आकाश की ओर खोज भरी दष्टि से जब-तब देख लेती थीं। घड़ी ने एक, दो, तीन, चार करके कई बार घण्टे बजाये । पांच बजने को हुए तो गोसाइन ने पूछा : "लगता है, पुलिस नहीं आयेगी।" "कुछ भी नहीं कहा जा सकता । वह तो उसी समय आनेवाली थी," डिमि ने कहा। किसी की आँखों में नींद नहीं थी। तभी पिछवाड़े के रास्ते से अनुपमा आ गयी। आकर गोसाइन के पास ही बैठ गयी। बोली : "वकील साहब जेल से छूटकर आ गये हैं। बस, किसी तरह वर-वधू का प्रणाम ग्रहण करने का अवसर पा सके हैं। एक खबर भी लाये हैं।" "क्या ?" "सदर थाने के दारोगा ने नौकरी छोड़ दी है।" "अच्छा ! क्यों भला?" दोनों चौंक उठीं। "यों ही जिस-तिस को गिरफ्तार करने की उसकी इच्छा नहीं है." "तो इसी कारण अभी तक पुलिस नहीं आ सकी।" "वकील साहब ने कहा है कि पुलिस के लिए आशंकित होने की कोई जरूरत नहीं है। डिमि चाहे तो अब घर लौट जाये । सवेरे छह बजे एक गाड़ी है।" "तो क्यों न भाभी, मैं भी इसी गाड़ी से चली जाऊँ ?" गोसाइन ने पूछा। "तुम्हें नहीं जाना है।" मृत्युंजय / 271
SR No.090552
Book TitleMrutyunjaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBirendrakumar Bhattacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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