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बच्चा तो अब भी छाती के ही दूध पर रहता है । इसके लिए ऐसी कोई चिन्ता नहीं। रास्ते में उसे दूध पिलाते हुए ले जा सकेंगी। पर सूने घर में लौट आने की बात सोच-सोचकर उनका कलेजा धक् धक् करने लगा । उन्हें ऐसा लगा मानो अपने घर में प्रवेश करते ही वे मूच्छित होकर गिर पड़ेंगी। लेकिन अब जाना तो होगा ही । 'उचित भी यही है ।
वे रसोईघर में गयीं। वहाँ का काम निबटाकर वे अनुपमा को बुलाने गयीं । दिन ढलने को था । अनुपमा भीतर से दरवाज़े पर कुण्डी चढ़ाकर सो रही थी । उनके 'भाभी, भाभी' कहकर दो-तीन बार पुकारने और दरवाज़ा ठक् ठक् करने पर अनुपमा जगकर बाहर निकल आयी । उन्होंने देखा कि अनुपमा की आंखें थोड़ी सूजी हुई हैं। शायद वह कमरे में जाकर ख़ ूब रोयी थी । उसने कपड़े तक नहीं बदले थे । गोसाइन को उस पर सहानुभूति हो आयी । बोली :
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"भाभी, खाने का समय हो गया है। स्नान करना चाहती हो तो कर लो।" "नहीं, मुझे भूख नहीं है । "
"अरी, क्या कहती हो ? सुबह से कुछ भी तो नहीं लिया । नहीं खाने से कैसे चलेगा ?"
अनुपमा कुछ निर्णय न कर सकी कि उत्तर क्या दे । दुःखी मन से बोली : "मैं 'कुछ सोच ही नहीं पाती कि मैं करूं तो क्या करूँ । तुम्हीं कुछ बताओ । मेरा हृदय टुकड़े-टुकड़े हो गया है।"
"भाभी ! अब तो जो होने को था, सो हो ही गया," गोसाइन ने समझाया । शोक करते रहने से अब क्या होगा ? धीरज से काम लो । सब ठीक हो जायेगा । मैं आज ही डिमि के साथ रेलगाड़ी से अपने घर चली जाऊँगी । बच्चे को भी आराम से लेते जाऊँगी। कोई असुविधा नहीं होगी । जरूरत पड़ी तो रात में जागीरोड रुककर वहाँ से तड़के चल दूंगी । तुम्हें भी शान्ति मिलेगी ।"
अनुपमा भला क्या कहती ! बोली :
"तुम खाना परोसो । यह सब बाद में सोचेंगे ।"
गोसाइन बाहर निकल आयीं । अनुपमा भी स्नान घर की ओर चली गयी ।
जाड़े का सूरज काफ़ी ढल चुका था । चापरमुखवाली रेलगाड़ी शाम को मिलती थी । उसे पकड़ने के लिए नगाँव से पाँच बजे ही निकलना पड़ेगा । इसीलिए गोसाइनजी ने बच्चे को नहला-धुलाकर कपड़े पहना दिये । उसे दूध भी पिला दिया। अनुपमा चुपचाप यह सब देख रही थी। पीछे वाले बरामदे में एक चटाई डाल बच्चे को गोसाइन ने उसी पर लिटा दिया और फिर अनुपमा से बोलीं :
"भाभी, ज़रा इसे देखना । मैं सामान वग़ैरह समेटकर अभी आयी ।" बच्चा चटाई पर लेटा-लेटा किलकारी मार रहा था।
मृत्युंजय / 263