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मान सब एक ही साथ भड़क उठा है । बात कहीं और अधिक न बढ़ जाये, इस आशंका से गोसाइन ने कहा :
"तुम लोग जाओ, डिमि। मैं भी यहाँ से चली जाती तो सुखी होती।” डिमि गोसाइन की पीड़ा समझ गयी। वह तपाक से बोली :
"क्या आप सचमुच घर जायेंगी ? ऐसे घर में आपको रहना भी नहीं चाहिए । चलेंगी ? आपको घर तक छोड़ आने का जिम्मा मैं लेती हूँ ।"
अनुपमा को लगा कि उसने ठीक काम नहीं किया। पर उसने इसके लिए क्षमा नहीं माँगी । वह तत्क्षण वहाँ से हट गयी : वालण्टियरों को देखते ही उसकी देह में आग लग जाती है । वैसा क्यों होता है, वह स्वयं भी समझ नहीं पाती है । वह अपने कमरे में चली गयी और अन्दर से दरवाजा बन्द कर लिया ।
गोसाइन कुछ देर तक डिमि की ओर ताकती रहीं । वे जाने की ही बात सोच रही थीं। उन्हें अनुपमा के साथ रहना सचमुच मुश्किल हो रहा था। अनुमा के कल के और आज के व्यवहार में कितना अन्तर है ? कल के व्यवहार के पीछे रूपनारायण के प्रति उसकी बचपन की आत्मीयता कार्य कर रही थी । उसके लिए अनुपमा के प्राण अब भी रोते हैं; लेकिन और वालण्टियरों के लिए वैसा कुछ नहीं । दूसरों की कौन कहे, स्वयं गोसाइनजी के लिए भी कोई आग्रह नहीं । इसीलिए डिम की बात सुनकर गोसाइन की भी इस घर को छोड़ देने की इच्छा हुई । पर उनके हाथ में दो पैसे भी तो नहीं थे ।
"चलेंगी या यहीं रहना पसन्द करेंगी ?" डिमि ने पूछा ।
"चलूंगी।"
"कब ?"
" तू पहले टिकी को पहुंचा आ । हम रात को चापरमुखवाली रेलगाड़ी से जायेंगी ।"
" अच्छा ।"
जाते-जाते टिकी भी कह गया, "गोसाइनजी, आपने जाने को सोचा, यह अच्छा ही किया । यों रहने से अच्छा है यहाँ से चला जाना हो । मन को शान्ति नहीं मिलने पर अपने लोगों के बीच में रहना भी दूभर हो जाता है।"
दोनों को जाते देख गोसाइन का हृदय पसीज गया : कोई कह नहीं सकता कि कहाँ-कहाँ के आदमी आकर कैसे अपने से हो जाते हैं । दूसरी ओर अपने लोग भी पराये-जैसे लगने लगते हैं। दोनों जब तक आँखों से ओझल नहीं हो गये, तब तक वे वहीं खड़ी हो उन्हें देखती रहीं । और फिर अपने कमरे में चली गयीं । बच्चा अभी भी सो रहा था । वे अपने सामान को इकट्ठा करने लगीं । सामान ज्यादा कुछ था भी नहीं । अपने साथ पहनने-ओढ़ने के कपड़ों के सिवा कुछ लायीं भी तो नहीं थीं । बच्चे के कपड़े अनुपमा ने दिये । उन्हें भी साथ ले ही जाना पड़ेगा ।
262 / मृत्युंजय