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________________ पन्द्रह शइकीया वकील के घर के पिछवाड़े एक बाग़ था। बाग़ के एक कोने में आम के पेड़ तले दोनों रुक गये। अनुपमा ने कहा : ___ "तुम यहीं रुको । मैं अन्दर झाँक आती हूँ।" झाँक आने का मतलब एकदम स्पष्ट था। विवाह वाले घर में रूपनारायण के आने की किसी को भनक न लगे । शइकीया से चुपचाप बात कर वहाँ से चुपके लौट आना होगा। निस्सन्देह यह काम आवश्यक था । लेकिन दूसरों के द्वारा भी तो इसकी सूचना शइकीया तक भिजवायी जा सकती थी। आने का एक और भी उद्देश्य था-प्रच्छन्न, सर्वथा अव्यक्त और अज्ञात । उसे अनुपमा ही ताड़ सकी थी। अनुपमा उसके हृदय की बात आखिर कैसे समझ गयी ? शायद नारीजन्य सहज प्रवृत्ति के कारण ही। और उसने उसे 'तुम' कहकर पुराने दिनों की स्मृति ताज़ा भी कर दी थी। यह कोई साधारण सहानुभूति नहीं थी। अनुपमा के विवाह हुए भी तो अधिक दिन नहीं हुए थे। इसी अवस्था में इसके सारे अरमान लुट गये। कामनाएँ मुरझा गयीं । उसके दुःख से रूपनारायण का हृदय भर आया। उस क्षण वह कर्तव्यपरायण निष्ठर सैनिक नहीं रह गया था। पुरानी सहपाठिनी के वैधव्य को सोच-सोचकर उसका हृदय असीम वेदना से विदीर्ण हो गया। गांधीजी के कथनानुसार अगर यह आन्दोलन अहिंसक ढंग से आगे बढ़ाया जाता तो शायद ऐसी अघटनीय घटना नहीं हुई होती ! नारियाँ पुरुषों के हृदय में प्यार और दया की भावना बड़ी सहजता से उत्पन्न कर सकती हैं। इस समय रूपनारायण के मन की कठोरता बहुत कम हो गयी थी। अनुपमा की दुर्दशा ने उसके हृदय को दुर्बल बना दिया । गोसाइनजी की बातों ने यदि उसे दृढ़ता न प्रदान की होती तो शायद उसके मन को और भी अधिक कष्ट होता । एक ही घर में मित्र और शत्र दोनों की विधवाओं का होना बड़ी विचित्र बात थी । अपने को सँभालते हुए उसने अपने कोट का काल र एक बार गर्दन तक खींच लिया। सर्दी के कारण उसे खाँसी भी आना चाह रही थी, पर जैसे-तैसे उसने उस पर काबू पा लिया। तभी कुछ और महिलाएं आपस में बातचीत करती हुई आँगन से पिछवाड़े
SR No.090552
Book TitleMrutyunjaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBirendrakumar Bhattacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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