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देती हूँ।"
रूपनारायण को अनुपमा पर तनिक भी अविश्वास नहीं हुआ। उसे लग रहा था कि अनुपमा पर अविश्वास करना अपने ऊपर ही विश्वास खो देना है।
थोड़ी ही देर बाद अनुपमा अपनी ननद के साथ लौट आयी। उनकी गोद में बच्चा भी था। आते ही ननद ने कहा :
"आपके नाम में ही कोई जादू है । आपके आते ही भाभी का दिल एकदम बदल गया।" इतना कहते-कहते गोसाइनजी जोर से हँस पड़ी। वे फिर बोलीं, "पहले यह आमने-सामने होकर खुले दिल से बात भी नहीं करती थीं। मेरे सिर पर तो एक भूत सवार रहता था और इनके भी सिर पर एक दूसरा भूत । उत्तरा, गांधारी और भानुमती-जैसी ही हमारी दशा है। पुरुषों के किये का कुफल हम स्त्रियों को ही भोगना पड़ रहा है।"
रूपनारायण ने मुस्कराते हुए कहा, "ठीक ही तो है। लेकिन स्त्रियां भी तो हमारी ही तरफ हैं। हैं न अनुपमा ?"
अनुपमा कुछ नहीं बोली। वह चुपचाप अन्दर चली गयी। रूपनारायण अवाक्-सा रह गया। __ गोसाइन ने सारी स्थिति को भांपते हुए कहा :
"इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। वह सब कुछ जानती-समझती हैं, पर जब कभी अपने को सँभाल नहीं पाती हैं । खैर, यह सब छोड़िये । गोसाईजी से अन्तिम समय में तो भेंट हुई होगी न ?"
हाँ, हुई थी।" गोसाईंजी के अन्तिम क्षण का वर्णन करते हुए रूपनारायण अपने भगोड़ेपन की बात भूल गया । बात ख़त्म होने पर गोसाइन ने कहा :
“अच्छा, अब छोड़ो भी उन बातों को । हाँ, आप मुन्ने को देखना चाहते थे न ? देख लीजिये । इसे पालने-पोसने का भार अब आप सब पर ही है। मेरा अपना तो कोई है नहीं।"
रूपनारायण कुछ देर तक बच्चे को निहारता रहा । एक आह अवश्य उसके मुंह से निकली। लेकिन बोल कुछ भी न सका। ___ कुछ क्षण उसी तरह बीते। कोई बात तो करने को बची नहीं थी। सभी ओर से एक अनिश्चय : एक संघर्ष । हर क्षण एक विपरीत द्वन्द्व । नहीं, उसे कुछ और नहीं कहना। गोसाईंजी के अधूरे काम ही पूरा करने को पड़े हैं। गोसाइन ने अपने को धर्य बँधाया, बोली :
"भगवान् करे, मेरी-जैसी दशा किसी की भी न हो। भाभी-जैसी दशा किसी की भी न हो। तभी हमारे स्वामी का बलिदान सार्थक होगा।"
गोसाइन विदा ले अन्दर चली गयीं। इसी समय अनुपमा फिर चली आयी। मुसकराने का प्रयास करते हुए उसने कहा :
मृत्युंजय | 237