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और इतना कहते हुए वह रूपनारायण का हाथ पकड़कर बाहर खींच ले गया। चलते समय रूपनारायण ने आँगन में रखी कुदाल उठा ली। देखने पर वह बिलकुल मैगनसिंहिया लग रहा था।
सूरज उस समय ढलने को था। उदास और बोझिल शाम धीरे-धीरे गहरा रही थी और पेड़-पौधे दौलायमान हो रहे थे।
रतनी की छाती धड़कने लगी। उसने दोनों थालियाँ उठायीं और उन्हें रसोईघर में पानी से भरी बड़ी बाल्टी में डाल दिया। वह जमीन पोंछने लग गयी। बरठाकुर ने ठीक ही कहा था कि आज वे झपट्टा मारेंगे।
तभी लगा जैसे बिना आवाज दिये ही कोई बाहरी दरवाजे से घुसता चला आ रहा है । बूटों की आवाज़ सुनाई दी।
"कौन ?" रतनी ने ज़ोर से पूछा । "तुम सबका यमराज । कहाँ गये ये लोग?"
रतनी समझ गयी कि यह आवाज़ किसकी है। अब इधर ऐसा कोई व्यक्ति नहीं जो इस आवाज़ को न पहचानता हो। वह निडर होकर बोली : ___ “यम आया हो तो और जमाई आया हो तो-मैं जूठे बर्तन उठा रही हूँ। निकल नहीं सकती।"
"किसके जूठे बर्तन उठा रही हो ?अपने खुद के या किसी और के ? देखें तो।"
रतनी ने जल्दी से उठकर बाल्टी को ढंक दिया और फिर जमीन पोंछने में जुट गयी । इधर शइकीया बेहिचक धड़धड़ाते हुए अन्दर चला गया। रतनी ने उसकी ओर घूमकर देखा तक नहीं । पोंछा लगाते हुए ही बोली : ___"भगत का लड़का होकर भी जूते पहने रसोईघर में घुसने में शर्म नहीं आती ?"
"जूते की ठोकर लगने पर ही तुम लोगों की यह सब चोरी-भगोड़ी ख़त्म होगी।" शइकीया दारोगा ने बौखलाते हुए उत्तर दिया।
इतना सुनना था कि रतनी मानो रणचण्डी बन गयी। तमतमाकर बोली :
"किस चोरी की बात कह रहे हो? कभी तुम्हारी कोठी में सेंध मारने गयी थी क्या ! चोर तो तुम लोग हो। दूसरों के घर-द्वार, चूल्हे-चौके तक बिना पूछे घुसते चले आते हो।" ___ शइकीया को यह अपमान सह्य नहीं हुआ। गुस्से में आकर उसने उसे एक ठोकर मारी और बाहर निकल गया। बूट की ठोकर से रतनी वहीं जुठन पर ही गिर पड़ी। ठोकर उसकी कमर पर न पड़ जाँघ पर लगी । कमर या पेट पर पड़ने से तो अन्तकाल ही हो जाता। वह न तो चीखी-चिल्लायी और न ही कराही। कुछ
228 / मृत्युंजय