________________
पर वह आज भी परतन्त्र है। इसके लिए गांधीजी उत्तरदायी नहीं हैं क्या ? सुभाष बोस ने ठीक ही कहा है, 'स्वतन्त्रता पाने के लिए हमें युद्ध करना होगा।' जयप्रकाश और लोहिया ने असली राह दिखलायी है । हमें गुरिल्ला युद्ध करना 'पड़ेगा।
लेकिन...
इस 'लेकिन' ने ही तो उसके मन में सब कुछ गड़बड़ कर रखा है। इस ध्वंसलीला को देखने के पहले रूपनारायण का हिंसा की नीति पर अविचल विश्वास था। किन्तु हिंसा से आत्मगौरव नहीं मिलता। अन्यथा उसके मन, प्राण और हृदय में एक अजीब-सी रिक्तता क्यों महसूस होती ? इस समय कोई उसके हाथ में यदि गुलाब का एक लाल फूल थमा दे तो उसमें उसे सौन्दर्य दिखाई नहीं पड़ेगा। उसे फूल में उस आदमी के ख न की लालिमा ही दिखेगी जिसे उसने गोली मारी है। इसी तरह सन्ध्या के सूरज की लालिमा में उसे मृत सैनिकों के ख न का रंग ही दिखेगा, उसमें सौन्दर्य की उपलब्धि नहीं होगी। उसे यह उपलब्धि न होगी तो न ही सही, इससे कोई अन्तर नहीं पड़ेगा। यह सच है कि इससे उसके मन का सूक्ष्म सौन्दर्य बोध ग़ायब हो जायेगा, पर महत्त्व की बात यह होनी चाहिए कि भारत के भावी नागरिकों के मन पर इसका तनिक भी प्रभाव न पड़े। भविष्य में वे कोई भी युद्ध न देखें, युद्धहीन शान्ति और अहिंसा-प्रिय भारत में वे हँसें, बोलें, गायें, प्रेम करें
तब भी वह अपने विवेक को समझाने में समर्थ नहीं हो रहा था। उसका विबेक मानता नहीं। ठीक ही तो है, गांधीजी भी तो यही कह रहे हैं : हिंसा का परित्याग करो, अभी-इसी क्षण से । उसके बदले संग्राम आरम्भ करो प्रेम का : आक्रामक प्रेम का।
यह असम्भव है !
गांधीजी महान् हैं । पर यह जरूरी नहीं कि उनके महान् होने से अन्य सभी भी महान् बन जायेंगे।
लेकिन...! यह 'लेकिन' भी क्या बला है जो पीछा ही नहीं छोड़ती !
गोसाईं की युक्ति के विपरीत रूपनारायण को कोई उपयुक्त जवाब सूझ नहीं सका । यह गोसाई की नहीं, गांधीजी की युक्ति थी। अकाट्य, अतयं ।
लेकिन संसार का इतिहास देखने से पता चलता है कि फ्रांस, रूस, चीन, युगोस्लाविया, बर्मा कहीं भी लोगों ने हिंसा-विहीन विप्लव नहीं किया। कारण, खाली हाथों मात्र मीठी बातों से असहयोग आन्दोलन कर शोषकों को सत्ताच्युत करना आसान नहीं। ये सारे उदाहरण रूपनारायण की आँखों के सामने थे। उसने कहा :
182 / मृत्युंजय