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अँधेरा बढ़ता जा रहा था । आहिना ने कहा :
“हे कृष्ण, एक मशाल जला लें तो कैसा रहे ?”
गोसाईं कुछ देर तक धनपुर की ओर देखते रहे और धनपुर गोसाईजी की ओर । बोले गोसाईं :
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"हाँ कोंवर, मशाल के बिना जाने में असुविधा होगी । केवल टॉर्च से काम नहीं चलेगा । और हाँ, याद है न वह जगह, वही चट्टान जहाँ हम लोगों ने खाना खाया था। वहीं टिकेंगे। हमारे पहुंचने पर आप लोगों में से कोई एक वहीं मिलेगा । याद रखिये, आज रात कोई झपकी भी नहीं ले सकेगा ।"
आहिना जैसे ही मशाल जलाने को जाने लगा, गोसाईं ने एक और बात याद दिलायी :
"रास्ते में इसे सुभद्रा के बारे में कुछ भी नहीं बतायेंगे। अभी इसके लिए उचित समय नहीं है ।"
"हम तो नहीं कहेंगे, हे कृष्ण, पर कहीं कॅली न कह दे !" आहिना कोंवर चिन्तित हो उठा ।
गोसाई हँसकर बोले :
"ठीक है, यदि कॅली कहती है तो कहने दीजिये । मेरा मतलब इतना ही है कि इसकी चिकित्सा में कहीं कोई व्याघात न हो। बस और कुछ नहीं ।" आहिना मशाल बनाते समय एक पद भी गाता रहा :
दीनबन्धु राम दयाशील देव,
तव पद-कमल
सदा करूं सेव । मोर प्रभु राम करुणा-सागर, हम दुखियों को न छोड़े दामोदर ॥ मधु-रिपु आप कमल लोचन, तव गुण-नाम भव भय मोचन ।
मशाल जला ली गयी । आहिना स्ट्रेचर के पीछे-पीछे दौड़ने लगा । धनपुर के लिए आज उसका मन बड़ा दुखी था । धनपुर के प्रति उसका पिछला सारा क्रोध हवा हो चुका था । उसने मन ही मन प्रार्थना की, "हे दयामय हरि ! इसे बचा लो। चाहो तो इसके बदले संसार से हमें उठा लो, हे कृष्ण ।" गोसाईकुछ देर तक हिना कोंवर की ओर देखते रहे। फिर हाथ में बन्दूक़ सँभाल रस्सी के पास खड़े हो उन्होंने एक संकेत-सूचक सीटी बजायी । रेलवे लाइन के उस पार टीले पर तैनात रूपनारायण के कानों तक वह आवाज़ पहुँची ।
दिन का प्रकाश समाप्त हो चुका था । और गोसाईं का मन, वह भी सूखकर मरुभूमि बन गया था ।
कलेज पहले से भी अधिक सर्द हो चला था ।
170 / मृत्युंजय