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स्ट्रेचर को लाते देख धनपुर मुसकराया । बोला :
"इस मुर्दे को ढोकर अब क्या होगा ? आप लोग जायें भगवन् । मैं तो अब कुछ ही घण्टे का मेहमान हूँ । बेकार क्यों परेशान होते हैं। अच्छा होगा मुझे यहीं छोड़ दीजिये । जितना हो सकेगा, मैं अपने आपको सँभालता रहूँगा । हाथ में, रायफल तो है ही । शत्रु को देखते ही मार दूंगा । बच रहा तो उलटती हुई गाड़ी भी देख लूंगा और तब मेरे मन को शान्ति मिल जायेगी ।"
"एक बात है, धनपुर ।" गोसाईं ने समझाया, "तुम तो सब समझते ही हो।" लेकिन तुम्हारे इस प्रकार कहने से तो नहीं चलेगा । नायक मैं हूँ। मैंने अपना कर्तव्य ठीक से निभाया या नहीं, इसका विचार बाद में होगा। लेकिन अभी तुम्हें मेरे आदेश को मानना ही पड़ेगा। फिर अभी तो असली लड़ाई लड़नी बाक़ी है । अभी कहीं से भी गोली चल सकती है, धनपुर । ऐसा नहीं सोचना कि शइकीया के आदमी सो रहे हैं। पीछे वे हमें ढूंढ़ते हुए आ रहे होंगे। मुमकिन है हमें यहीं लुक - छिपकर गोली चलानी पड़े। रेलगाड़ी के आने में अभी थोड़ी देर है । ट्रॉली के लिए तो मैं और रूपनारायण दोनों पर्याप्त हैं । तुम लोग आगे बढ़ शइकीया के लोगों से निपटो ।"
कुछ देर तक धनपुर चुप्पी साधे रहा । गोसाईं की बातों को यों ही नहीं टाला जा सकता । तिस पर मूल बात थी नायक के आदेश की । युद्ध में उसका पालन करना ही होता है । उसने कहा :
"ठीक है, वैसा ही किया जायेगा । आप लोग काम पूरा करके ही लौटेंगे ।" मधु और भिभिराम ने धनपुर को स्ट्रेचर पर लिटा लिया। उस पर आहिना कवर का साफा बिछा लिया गया था। धनपुर ने अपने को औंधे लिटाये जाने की इच्छा की ताकि हाथ में रायफ़ल दबाये रखने की सुविधा बनी रहे और फिर गोसाईं की ओर देखते हुए कहा :
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"ट्रॉली के उलटने के बाद आप लोग यहाँ रुकेंगे नहीं । रूपनारायण को भी संकेत कर दें । रेलगाड़ी के उलटने के बाद मिलिटरी चुप नहीं रहेगी । वे लोग नदी-नाले, जंगल-पहाड़ — यहाँ का चप्पा-चप्पा छान मारेंगे। इस रस्सी को भी यहाँ नहीं छोड़ देना । काम पूरा होते ही सीधे गुफा में आयें ।”
जाने का निर्णय कर लेने के बाद धनपुर को वहाँ और रुकना निर्थक लगा । उसने मधु और भिभिराम की ओर देखते हुए कहा :
"चलो, और हाँ, तुम भी अपनी-अपनी बन्दूकें इस स्ट्रेचर पर ही रख दो ।" धनपुर के पैर की पीड़ा बढ़ गयी थी ।
अपनी-अपनी बन्दूकें स्ट्रेचर पर ही रख मधु और भिभिराम ने उसे कन्धों पर उठा लिया। “हे कृष्ण, चलो भैया,” कहता हुआ आहिना उनके पीछे हो लिया ।
मृत्युंजय | 169