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नहीं जा सका।
रूपनारायण ने ऐसे ही एक शिविर की बात चलायी थी। उसे लगा कि यह जगह हर तरह से एकदम ठीक है। रूपनारायण के साथ धनपुर, मधु और भिभिराम आगे बढ़कर उन दोनों गुफाओं का रास्ता भी साफ़ कर आये थे। उनके अन्दर तक धूप भी पहुंचती थी। खासी लम्बी-चौड़ी भी थीं वे गुफाएँ। उनके सामने पेड़-पौधे भी उगे थे, जिनसे बाहरी लोगों को कुछ पता न चल पाता कि वहाँ ऐसी कोई गुफा भी है । पुलिस और फ़ौजी अधिकारियों को भी जल्दी सन्देह न होता । गुफा से एक फ़लांग की दूरी पर झरना बह रहा था।
रूपनारायण का चुनाव एकदम सही था। उसमें कोई चूक न थी। लेकिन गोसाई बहुत आश्वस्त न थे। उनकी चिन्ता जेल में पड़े उन साथियों के लिए थी: पता नहीं वे सब क्या सोच रहे हों। मायङ के लोगों के साथ मिल-बैठकर सोचनाविचारना भी उन्हें आवश्यक जान पड़ा। वस्तुतः उनके मन में जो संघर्ष और द्वन्द्व था, वह हिंसा के प्रति उन्हें समर्पित नहीं होने दे रहा था। उनके इस असमंजस और नकारात्मक रुख को देखकर रूपनारायण को स्वभावतः गुस्सा आ गया था। लेकिन इस मौके पर गुस्सा कर बैठने की कोई वजह न थी। रूपनारायण ने तो यह निश्चय कर लिया था कि इस काम को पूरा कर वह इन्हीं गुफाओं में रहना पसन्द करेगा । इससे बेहतर दूसरी कोई जगह नहीं। गोसाईजी ने इस प्रस्ताव पर विशेष ध्यान नहीं दिया और न तो वह इसका समर्थन ही कर पाये ।
बीमारी और चिन्ता के कारण गोसाईजी का मुंह सूख गया था। उन्हें गोसाइन की चिन्ता भी सता रही थी। लेकिन अपने कर्तव्य और दायित्व के साथ वह आगामी कार्यक्रम के लिए प्रस्तुत थे। वह अपनी सारी परेशानियों को भूल जाना चाहते थे।
कन्धे पर बन्दूक लटकाये वह रूपनारायण के पास आये । बोले :
"अब उन बातों को भूल जाओ। जैसा होगा, देखा जायेगा । मुझे नहीं लगता कि मैं वापस लौट पाऊँगा । पहाड़ के आगे-पीछे, ऊपर-नीचे हर जगह सेना की टुकड़ियाँ बिछी हुई हैं। ऐसी स्थिति में यह जंगल ही अपना घर है। अगर यहाँ रुकना पड़ा तो हमें गुफाओं में ही छिपे रहना होगा।"
रूपनारायण ने एक सिगरेट जला ली थी। वह कहने लगा :
"आप लोगों की यह आशंका ही कर्मनाशा है। मरना तो है ही। आदमी मरता है और एक ही बार मरता है। लेकिन मरते रहने की बात हमेशा नहीं सोचनी चाहिए।" एक गहरी उसाँस भरकर बोला : “जिन्दा रहूँगा और आखिरी दम तक दुश्मनों के साथ लड़गा। यह सोचकर काम करना चाहिए।"रूपनारायण का स्वर धीमा हुआ । लेकिन वह अपने निर्णय पर पूरी तरह दृढ़ था।
गोसाईंजी रूपनारायण के हौसले पर प्रसन्न हुए । उसके चेहरे की ओर देखते
मृत्युंजय | 139