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कहिये, आप लोग क्या कहते हैं, हे कृष्ण ? अब चाहे तो इसे साथ रखिये या फिर मुझे, हे कृष्ण !"
हवा से पेड़ों की पत्तियाँ झिर-झिर कर रही थीं। उसके तले खड़े लोगों के चेहरों पर चाँदनी झिलमिल रास रच रही थी। रूपनारायण ने समझाया :
"आप भी रहें और धनपुर भी रहे । हम किसी को भी छोड़ नहीं सकते। धनपुर झूठ नहीं कह रहा है, कोंवर । अफ़ीम की डिबिया फेंक दें। अफ़ीम नहीं छूटेगी तो फिर यह आलस कैसे जायेगा ?"
रूपनारायण की बात का सभी ने समर्थन किया। _इस पर आहिना कोंवर को रुलाई आ गयी। पाँचएक मिनट के बाद धनपुर ने फिर टोका : __:'बोलिये, फेंक रहे हैं या नहीं ? यह घर नहीं है, लड़ाई का मैदान है। यहाँ अफ़ीम-मफ़ीम नहीं चलेगी।"
उसकी आवाज़ कर्कश हो उठी थी।
रोना बन्द कर कोंवर ने कहा, "आप जब सब मिलकर कह ही रहे हैं तो फेंके देता हूँ। हे कृष्ण, यह मेरे जीवन की बड़ी प्रिय वस्तु है। सोचता था कि यमराज के पास जाते समय भी इसे लेता आऊँगा। लेकिन यह नहीं हुआ। हे कृष्ण, लोग कहते हैं कि तीरथ यात्रा पर जाते समय अपनी प्रिय वस्तु का त्याग करना पड़ता है। आजादी की यह लड़ाई भी तीरथ की ही तरह पवित्र है, हे कृष्ण ! तुम्हारी बातों पर ही इसे भी छोड़ रहा हूँ।" इतना कह उन्होंने अपनी गठरी से अफीम की डिबिया निकाल धनपुर के मुंह की ओर फेंक दी। डिबिया धनपुर के गाल से लगती हुई नीचे बिखर गयी। ___ "हाँ, अब ठीक हुआ।" धनपुर हँसते हुए बोला । “अब आप हम लोगों को रास्ता दिखा सकेंगे, इसके लिए अब हम सब निश्चिन्त हैं। चलिये, चलें । ..."डिमि, तुम भी अब लौट जाओ। कल फिर भेंट होगी।"
डिमि सिसक-सिसककर रोने लगी। लेकिन उसकी सिसकी सुनने के लिए कोई रुका नहीं। सभी कपिली घाट की ओर बढ गये।
चाँदनी अब भी सब के मुंह पर आँख मिचौनी खेलती हुई चल रही थी।
इधर धनपुर के कानों में डिमि का वह सिसकना बजता रहा। जैसे-जैसे वह दूर होता जा रहा था, उसके अन्तर में एक तीव्र करुणा का राग उठता जा रहा था। उसके ख्यालों में मानो डिमि की सिसकी के सिवा और कुछ था ही नहीं। बाहर कुहासा और भीतर सिसकी।
सभी चुपचाप क़दम बढ़ाते जा रहे थे। सबसे आगे था आहिना । उनके पीछे था माणिक बॅरा । और लोग पीछे-पीछे चल रहे थे। छाया की तरह वे सब
132 / मृत्युंजय