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नहीं है । फिर भय से कोई लाभ भी तो नहीं।"
एक क्षण रुककर धनपुर ने काठी में पड़े दाव को निकाला और गोसाइन के हाथों में सौंपते हुए कहा, “इसे रख लीजिए-शायद कभी ज़रूरत पड़ जाये।"
डिमि अपनी झोली से छत्छत् और खाने की दूसरी चीजें निकालकर गोसाइन के सामने रखती हुई बोली :
"यहाँ किसी प्रकार का डर नहीं है, गोसाइनजी। आदमी भी आते-जाते रहेंगे। इसके अलावा मैंने मन्त्र पढ़कर इस जगह को बाँध भी दिया है।"
मृत्युंजय | 117