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"अच्छा ! किन्तु अब यहाँ इस तरह एकत्र होकर क्या करना चाहते हो?" डिमि ने पूछा।
"एक रेलगाड़ी को उलटना चाहते हैं," धनपुर ने साफ़-साफ़ बतला दिया।
"हाय दैया ! नहीं-नहीं । ऐसा काम मत करना। यह महापाप है।" डिमि चिल्लाकर बोली। उसका मन विह्वल हो उठा।
"तुम कुछ नहीं समझी डिमि !" धनपुर ने कहा । "हम अंगरेजों को यहां से खदेड़ना चाहते हैं। अभी तक अहिंसा के मार्ग पर चलते रहे, किन्तु वहाँ हमें सफलता नहीं मिली । अब हिंसा का मार्ग स्वीकार कर कोशिश कर रहे हैं। अभी तो हमने चरखे में पौनी ही लगायी है।" यह कह उसने शुरू से आखिर तक की सारी योजना को बतलाकर उसके परिणाम से डिमि को स्तम्भित कर दिया।
डिमि कुछ बोली नहीं । उसने देखा : आकाश में चाँद नाच रहा है। नाचने का कोई अन्त नहीं है । चाँद रुक-ठहर नहीं रहा है, ठहर तो वह स्वयं ही गयी है। धनपुर इस काम में जुटा है, इसका अर्थ यह नहीं कि यह काम अच्छा ही होगा। हिंसा, रक्तपात—ये सब कुछ घृणित काम हैं । किन्तु दूसरी ओर देश को आज़ादी दिलाने का काम भी तो बुरा नहीं है । इस काम का अर्थ वह समझती है। बचपन से ही वह भिभिराम के घर कामपुर में स्वयंसेवकों से मिलती रही है। साहबों के बदले देशी रजवाड़ों के होने पर रैयत की भलाई होगी, मालगुजारी माफ़ होगी, किसानों के लिए सीढ़ीनुमा खेत बनाये जायेंगे, चीजों की कीमतें कम होंगी, स्कूल-अस्पताल बनेंगे, जनता द्वारा चुने गये लोग शासन चलायेंगे-इन सबका अर्थ वह समझती है। लेकिन इसके लिए लड़ाई क्यों करनी चाहिए? लड़ाई बहुत बुरी चीज़ है । जापान के साथ अंगरेजों की लड़ाई छिड़ गयी है। इसी के कारण गारो गांव के लोगों को भी धान, दलहन, मुर्गे, गाय, बाँस सब कुछ कम दाम पर ही बेचना पड़ रहा है। इधर सारी चीज़ों की कीमतों में आग लग गयी है। आठ आने के कपड़े में आठ रुपये लग जाते हैं। इसलिए अपने-आप यह लड़ाई मोल लेना अच्छा नहीं हुआ।
-जो बात कभी नहीं सोची वह भी आज उसे सोचनी पड़ रही है । क्योंकि यह लड़ाई धनपुर लड़ रहा है। धनपुर इस लड़ाई में ख द को मिटाने निकला है । उसे यह सब छोड़ने के लिए कहे तो कैसे कहे ? वह है निपट वज्रलेप । अब इसे 'हाँ' कहने के सिवा और कोई उपाय नहीं है । इस प्रसंग को वहीं दबाते हुए वह धनपुर से बोली :
"तुम्हारी वीरता की कहानी तो सुन ली, किन्तु जिस लड़की के गले में हार डाल आये हो उसके बारे में भी तो कुछ कहना चाहते थे न ! वह भी कह ही डालो !"
“हार नहीं पहनाया है, केवल वचन दिया है। वचन देना ही काफ़ी है ।
मृत्युंजय | 107