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________________ हुए उसने अपना दम तो तोड़ दिया लेकिन उसकी आयु तो पूरी नहीं हुई थी। वह मुझे बहुत मानता था। गाँववाले मुझे अच्छी नज़र से नहीं देखते थे । इसलिए नहीं कि मैं गारो थी बल्कि " इतना कहते हुए वह किसी दूसरे संसार में खो गयी । फिर बोली, "यह सब तो तुम जानते ही हो, इसे क्या बताना । यह तो बहुत ही अच्छा हुआ कि दोनों आदमखोर बाघ मारे गये । हमारे गाँव वाले तुम्हें देवता की तरह मानेंगे। मैं तो डर गयी थी । बस, 'टेकरे' मन्त्र पढ़े जा रही थी । खुशी है कि आततायी बाघ मारे गये ।" धनपुर ने शकरकन्द चबाते हुए कहा : "बाघ अपनी बाधिन के साथ था । इसलिए उन्हें मारते बड़ा बुरा लग रहा था । लेकिन उन्हें मारना तो था ही ।" "अच्छा, तो तुम्हें भी बुरा लगता है ?" डिमि ने मीठी चुटकी ली। "किसी को तोड़ते हुए बुरा लगता ही है, क्यों ?" "क्यों, मैं आदमी नहीं हूँ ? वैसे सच पूछा जाये तो इस देश में आदमी बनना भी बहुत ही मुश्किल है ! यहाँ आदमी की पहचान उसके काम से नहीं, नाम-धाम, कुल - मर्यादा और जात-पाँत के आधार पर होती है। इसलिए तो मैंने उस अपशकुनी उल्लू को मार डाला ।" कहते हुए धनपुर कुछ-कुछ उत्तेजित हो उठा । fsfa हँसती हुई बोली, “तुम कौन-सा काम करने आये हो यह तो तुमने बताया ही नहीं । मैं तो कब से पूछ रही हूँ ।" शकरकंद निपटाकर धनपुर केला छीलने लगा । फिर कुछ सोचता और आकाश की ओर देखता हुआ बोला : " तुम्हें पता होगा कि मेरे पिताजी कामपुर के गोसाईंजी की खेती बटाई पर जोतते थे। लिहाजा दो जून खाना तक नहीं मिलता था। पढ़ाई पूरी नहीं हो सकी और हम जैसे ग़रीब परिवार में पले ढले लोगों के यहाँ हाकिम - मुंसिफ़ बनना भी बहुत मुश्किल है । इस संसार में खेतिहर होने के लिए भी खेत चाहिए | बटाई पर खेती करना एक तरह की दासता है । धर्म पर ब्राह्मणों का अधिकार है और इसी तरह कुछ गिने-चुने लोग ही वंशानुक्रम से सब कुछ भोग रहे हैं । हमारे लिए केवल जूठन ही बची रहती है । यह सब देख-सुनकर देह में आग लग जाती है । जी में आता है, एक बार भीम की तरह गदा घुमाकर सब कुछ मिट्टी में मिला दूँ, लेकिन भिभिराम ने बहुत समझाया, 'एक दिन में ही लंका जीतना आसान नहीं । पहले सेना जुटानी पड़ेगी, फिर समुद्र पर सेतु बाँधना होगा । इसके अतिरिक्त युक्ति चाहिए तब कहीं जाकर यह सब सम्भव होगा । और इन सबके पहले चाहिए आज़ादी। इसके मिलते ही सारी बाधाएँ दूर हो जायेंगी । जात-पाँत, धनी - ग़रीब, ऊँच-नीच सबका भेद-भाव मिट जायेगा ।' उसका कहना ठीक है पर मुझे लगता है कि एक ही काम को पूरा करने में यह जीवन बीत 100 / मृत्युंजय
SR No.090552
Book TitleMrutyunjaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBirendrakumar Bhattacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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