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________________ हैं। एक विशृंखल समाज था, राजनीतिक अस्थिरता थी, निरंतर आक्रमण-संघर्ष का वातावरण था, ऐसी स्थिति में कोई गतिशील ऊर्जावान चिंतन विकसित नहीं हो पा रहा था। जो रचनाएँ आईं उनमें लोकभाषा के कई रूप हैं, पर उनमें मूल अंश कितना है और प्रक्षिप्त कितना, यह विवाद का विषय रहा है। उनकी प्रामाणिकता को लेकर भी संदेह व्यक्त किया गया। अब्दुल रहमान (तेरहवीं शती) का 'संदेशरासक' अपनी प्रेमकथा के लिए विद्वानों का ध्यान आकृष्ट करता है। पर कल मिलाकर स्थिति यह है कि रचनाओं पर सामंती दबाव हैं और धार्मिक दृष्टियाँ भी हावी हैं। ऐसे में सिद्ध-नाथ साहित्य, योग-प्रभावित होकर भी अपने प्रतिवादी स्वर के कारण भक्तिकाव्य का मार्ग प्रशस्त करता दिखाई देता है। उसे अरसे तक यदि विद्वानों की स्वीकृति नहीं मिली, तो उसका एक कारण था कि वह दर्शन तथा रचना की प्रचलित परंपरा से किंचित् भिन्न था और अटपटी बानी की स्वीकृति में समय लगता ही है। भक्तिकाव्य के अतिरिक्त जो कई संत-पंथ विकसित हुए, उनकी पीठिका में भी इनकी उपस्थिति है : नामदेव, कबीर, दादू, मलूकदास आदि से लेकर नानकदेव तक। भक्तिकाव्य का मूलवृत्त लंबी रचनायात्रा तय करता है, चौदहवीं से सत्रहवीं शती तक। इस बीच कई शासक आते हैं जिनके व्यक्तित्व की छाया समाज पर पड़ती है और जिसमें कुछ अनुदार सामंतों को छोड़कर, शेष प्रायः उदार दृष्टि रखते हैं। केंद्रीय सामंतवाद, सांस्कृतिक संवाद, बढ़ते आत्मविश्वास से चिंतन और रचना में नई सक्रियता आती है। भक्तिकाव्य के मूल इतिवृत्त, विशेषतया उसके समाजदर्शन की चर्चा के पूर्व कुछ प्रश्नों पर विचार करना प्रासंगिक है। सुविधा के लिए ही सही, पर साकार-निराकार अथवा सगुण-निर्गुण आदि के जो विभाजन किए जाते हैं और फिर राम-कृष्ण आदि की शाखा-प्रशाखा में उन्हें विभाजित किया जाता है, यह एक सीमा तक ही संभव है। महान् रचनाओं की प्रमुख प्रवृत्तियाँ हो सकती हैं, पर उनका समवेत स्वर होता है, जो उन्हें गरिमा देता है। कालिदास शैव थे अथवा नहीं यह प्रश्न गौण है, विशेषतया जब वे 'कुमारसंभवम्' के प्रथम सर्ग में ही पार्वती का रूपचित्र बनाते हैं, विस्तार से। पार्वती का यह मानुषीकरण मत विशेष का अतिक्रमण कर काव्य के अनुभूति क्षेत्र में पहुँचता है : रक्तिम अधरों पर निर्मल हास, जैसे अरुणाभ किसलय में श्वेत प्रसून अथवा स्वच्छ प्रवाल में जड़ित मुक्ता (कुमारसंभवम् : प्रथम सर्ग, 44)। दर्शर-विचार काव्य को बौद्धिक सामर्थ्य देते हैं, दृष्टि का विकास होता है, पर इसे वर्गीकरण का आधार बनाकर विवेचन करने की कठिनाई है। इस संकट को कवि भी पहचानते हैं जैसे कबीर निराकार में आस्था रखकर भी, राम की बहुरिया बनना चाहते हैं। जायसी की पद्मावती रूप-गुण में अद्वितीय है : बेधि रहा जग बासना, परिमल मेद सुगंध (नखशिख खंड)। सूर का तर्क है : सब विधि अगम विचारहि तातें सूर सगुन लीला-पद गावै और तुलसी ने कहा है : सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा, गावहिं मुनि पुरान बुध वेदा (मानस. बालकांड)। 62 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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