SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ का योगदान भी है (पृ. 15)। राधाकुमुद मुखर्जी का कथन है कि गुप्त सम्राटों ने स्वयं को परम भागवत कहा और उनके समय में वैष्णव धर्म को विकास मिला (गुप्त साम्राज्य, पृ. 150)। भागवत में राधा की अनुपस्थिति के प्रसंग को छोड़ दें तो यह गंथ मध्यकालीन भक्ति आंदोलन की पीठिका में अपनी उल्लेखनीय उपस्थिति का बोध कराता है। प्रमुख भारतीय भाषाओं में इस ग्रंथ के भाष्य-टीका प्रयत्न हुए और रचनाशीलता को भी इससे प्रेरणा मिली। आरंभ में भागवत माहात्म्य में कलिकाल की जिस दुर्दशा का संकेत नारद के द्वारा हुआ है, वह प्रकारांतर से उस समय की मल्यहीनता है। द्रविड़ में जन्म, कर्नाटक में विकास, महाराष्ट्र में आदर, गुजरात में वार्धक्य और अंत में वृंदावन में नवयौवन की प्राप्ति, भक्ति स्वयं बताती है और ज्ञान-वैराग्य नामक दो पुत्रों का उल्लेख करती है। भक्ति कलियुग की मुक्तिदाता है जिसमें ज्ञान भी सम्मिलित है। ज्ञानी श्रेष्ठ है, इसका वर्णन गीता (11-19-5) से लेकर तुलसीदास तक में है : ग्यान विराग-जोग विग्याना (मानस, उत्तर, 114-15)। भागवत का चिंतन समस्त भक्ति आंदोलन को गतिशीलता देता है, यह निर्विवाद है। उल्लेखनीय यह कि यहाँ भक्ति बौद्धिक शास्त्रीय सीमाओं से निकलकर साधारणीकृत होती है, सामान्यजन को संबोधित करती है। भागवत का कथन है कि निम्नतम वर्ग भी भक्ति के अधिकारी हैं (3-33-6,7)। यदि आठवीं-नवीं शताब्दी के अनंतर देशी भाषाओं का उन्नत विकास स्वीकार कर लिया जाय तो भागवत दर्शन भक्तिकाव्य की पीठिका में उपस्थित है। भक्तिचिंतन की लंबी परंपरा है जिसे भागवत को प्रस्थान मानकर आगामी विकास के रूप में देखना चाहिए। इस्लामी शासन के समय राष्ट्रकूट, पाल-गुर्जर-प्रतिहार आदि राजवंश थे और पल्लव, चालुक्य, पांड्य, चोल आदि भी, जिन्होंने भक्तिभावना को प्रश्रय दिया। हिंदी भक्तिकाव्य का मुख्य वृत्त प्रायः चौदहवीं-सत्रहवीं शताब्दी के मध्य स्वीकार किया गया है, जो राजनीतिक दृष्टि से सल्तनत काल (अलाउद्दीन खलजी, मृत्यु 1316) से आरंभ होकर शाहजहाँ (1627-1658) तक जाता है। पर भक्तिचिंतन का आरंभ पहले हो चुका थी, यह सर्वस्वीकृत है। विचारणीय यह कि भक्ति को लेकर एक ओर शास्त्र-चिंतन चल रहा था, दूसरी ओर पांडित्य की सीमाओं को तोड़कर उसे सामान्यजन तक लाने के प्रयत्न भी हो रहे थे। देवमंदिर भी इसी क्रम में देखे जाने चाहिए। जिसे दक्षिण का आलवार युग तथा बाद का आचार्य युग कहा जाता है, वह समय पल्लव नरेशों का है (नरसिंहवर्मन प्रथम, 642-68) और बाद में चोल राज्यों का (ग्यारहवीं-बारहवीं शती)। दोनों राजवंश श्रेष्ठ मंदिर-निर्माता थे, जिन्होंने भक्तिभावना को प्रश्रय दिया। __ आलवार छठी-नवीं शताब्दी के मध्य सक्रिय थे और भक्तिप्रवाह में उनका प्रदेय यह कि संस्कृत भाषा का वर्चस्व तोड़ते हुए, उन्होंने तमिल भाषा में सामान्यजन को सीधे ही संबोधित किया। वहाँ पांडित्य-शास्त्र के स्थान पर अनुभूति का आग्रह भक्तिकाव्य का स्वरूप / 51
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy