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________________ निवेदनम् भक्तिकाव्य रचनाशीलता का ऐसा कालजयी स्वर है, जो मध्यकालीन समय से टकराता हुआ उसे अतिक्रमित करता है, एक उच्चतर मानवीय मूल्य-संसार की सदाशयता से परिचालित। उसके कई पक्ष हैं धार्मिक-सांस्कृतिक से लेकर सर्जन-क्षमता तक और लोग उसे अपने-अपने ढंग से देखते-समझते रहे हैं। महान सर्जन से संवाद किसी भी ऐसे समय की अनिवार्यता होती है, जो तत्काल में निश्शेष नहीं हो जाना चाहता। सीखने न सीखने का प्रश्न दूसरा है, पर इतना तो जाना ही जा सकता है कि कोई रचना शताब्दियाँ पार कर, कैसे हम तक पहुंचती है। वह लोककंठ में वास करती है और तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग को भी ललकारती है। टीका-टिप्पणी करना सरल है, पर सार्थक रचनाशीलता के सही विवेचन के लिए, पूर्वाग्रहरहित दृष्टि की आवश्यकता होती है। कोरा भाववाद और अहंकारी कुतर्क के खतरे स्पष्ट हैं, ऐसी स्थिति में किसी संतुलित दृष्टि की अपेक्षा होती है-राग-विराग से थोड़ा हटकर। यह निवेदन इसलिए क्योंकि अध्ययन का आरंभ आधुनिक साहित्य से किया था, पर इधर लगभग दो दशकों से समकालीन रचनाशीलता के साथ यात्रा करते हुए, भक्तिकाव्य से संवाद का प्रयत्न भी करता रहा हूँ, और मुझे इससे संतोष मिला। आधुनिक पाठक जब परंपरा के जीवित अंश पर विचार करता है, तो उसके समक्ष वह परिवेश भी होता है, जिसमें उसका निर्माण हुआ था। भक्तिकाव्य भक्तिआंदोलन की पीठिका पर आया, इसलिए यह स्वाभाविक प्रश्न कि वह अपने समय के यथार्थ को कैसे देखता, समझता है और उसकी अभिव्यक्ति के कौन से साधन जुटाता है। दर्शन, शास्त्र, पांडित्य की बौद्धिक परंपरा भक्तिकाव्य के पूर्व मौजूद थी, पर रचना के धरातल पर उससे आगे बढ़ने का महत्त्वपूर्ण प्रश्न भी था। जिस संक्रमणकाल में भक्तिकाव्य नए मार्ग का संधान कर रहा था, उसे पार करने का कार्य उतना सरल न था, प्रायः जितना समझ लिया जाता है। समय से जूझते हुए, आगे की निवेदनम् / 9
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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