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________________ साधते हैं अथवा पार्श्व में जाकर बेहतर अवसर की प्रतीक्षा करते हैं। असंगठित समाजों में प्रायः ऐसा होता है कि क्रांति का ज्वार उतरते ही प्रतिक्रांति होती है और स्वार्थी वर्ग पुनः अपना प्रभुत्व स्थापित कर लेते हैं। विश्व धर्मों के इतिहास में इसके प्रमाण मिलते हैं जब पुरोहितवाद-कर्मकांड का विरोध करते-करते नया कर्मकांड विकसित हो जाता है और नए पंडे उदित होते हैं। से. तोकारेव ने लिखा है कि भारत में अवतार-पूजा ने अनेक संप्रदायों को जन्म दिया (धर्म का इतिहास, पृ. 227)। भक्तिकाव्य के कवि स्थितियों से अवगत हैं और उनकी काव्य-रचना को इसी पीठिका में देखना अधिक उपयोगी होगा। मध्यकाल का कठिन सामंती समय उनके सामने है, जहाँ चिंतन के धरातल पर कुछ बौद्धिक-तार्किक प्रयत्न तो दिखाई देते हैं, पर वह पंडितवर्ग तक सीमित है और समाज का मूल प्रवाह स्थिर-जड़ है। स्थिति का लाभ उठाते हुए धर्म में श्रद्धा के स्थान पर भय का संचार किया जाता है जिससे अंधविश्वास को प्रश्रय मिलता है। मूल्य-मर्यादाओं की टूटन को लेकर सब चिंतित हैं क्योंकि वही समाज का मूलाधार है। ऐश्वर्य है तो सामंत वर्ग के लिए, शेष की स्थिति तो तुलसी ने कवितावली में स्पष्ट की है : जीविकाविहीन लोग सीद्यमान सोचबस, कहैं एक एकन सों 'कहाँ जाई का करी।' भक्तिकाव्य का असंतोष समाजदर्शन की समझ के लिए सबसे विचारणीय पक्ष है और इस दृष्टि से वह अपने समय का वैचारिक प्रतिपक्ष है, रचना-धरातल पर। कथन-भंगिमा का अंतर हो सकता है, पर भक्तिकाव्य का विन्यास असमझौतावादी है, राजाश्रय का निषेध करता, समय से संघर्ष और मूल्य-स्तर पर विकल्प की खोज करता हुआ। तुलसी को कम प्रगतिशील कह दिया जाता है, पर उनका साहस है (कवितावली, उत्तर. 106) : धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूत कहौ, जोलहा कहौ कोऊ काहू की बेटी सों बेटा न ब्याहब, काहू की जाति बिगार न सोऊ तुलसी सरनाम गुलामु है राम को, जाको रुचै सो कहै कछु ओऊ माँगि कै खैबो मसीत को सोइबो, लैबे को एकु न देबे को दोऊ। समय से असंतोष का यह भाव हर सार्थक रचना का प्रस्थान है, क्योंकि इसी अर्थ में वह प्रतिसंस्कृति रचती है। वक्तव्यों की सीमा जानते हुए, कवियों ने सही आधार की खोज की, और राम-कृष्ण के नए रूपांतरण का प्रयास किया। सामंती समाज का विकल्प भक्तिकाव्य की चिंता है और वहाँ गहरे आत्मविश्वास के बिना आगे नहीं बढ़ा जा सकता। जुझारूपन में अंतर हो सकता है, पर भक्तिकाव्य में रचना और मूल्यों के प्रति यह आस्था उन्हें जीवन-प्रवाह में संतरित करती है। जब रचना का आत्मविश्वास दुर्बल होता है, तब वह छद्म तलाशती है, अथवा अलंकरण और कलावाद की ओर जाती है। कबीर विश्वास से कहते हैं कि जिस चादर को सुर-मुनि ने भी ओढ़कर मैला कर दिया, उसे मैंने बड़े यत्न से ओढ़ा और 'जस की तस धर दीन्हीं चदरिया। संभव है गर्वोक्ति प्रतीत हो पर कबीर का विश्वास है : भक्तिकाव्य का समाजदर्शन / 215
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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