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है और उनका वैशिष्ट्य यह कि उन्होंने विचार - संवेदन की मैत्री स्थापित करने का प्रयत्न किया, प्रवचनकर्त्ता पीछे छूट गया । वे जानते हैं कि कोरे उपदेश अनसुने कर दिए जाते हैं, इसलिए उन्होंने अपना ध्यान चरित्रांकन में लगाया, उन्हें समाज में संतरित किया। सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य यह कि उन्होंने सब कुछ लोकजीवन से प्राप्त किया - दृश्य से लेकर भाषा तक । सारा मुहावरा उन्होंने लोकजीवन से प्राप्त किया और शब्द - संयोजन तथा ध्वनि-योजना से ऐसे काव्य- संगीत का निर्वाह किया कि वे हिंदी के सर्वाधिक कंठस्थ और उद्धरणीय कवियों में हैं। भाव के अनुसार भाषा की भंगिमा परिवर्तित होती है, वह भी ऐसे सहज ढंग से कि दृश्य-परिवर्तन, भाग्य- संकेतों के बावजूद नितांत आकस्मिक नहीं प्रतीत होता । धनुषयज्ञ का समय है और सहसा लक्ष्मण के क्रोध से दृश्य बदल जाता है । राम-भरत का चित्रकूट में मिलन है, और बीच में तुलसी स्वार्थी देवताओं पर टिप्पणी करते हैं : सुरगन सभय धकधकी धरकी । तुलसी के पास उपमाओं का अक्षय कोश है जो उन्होंने व्यापक निरीक्षण और वृहत्तर जीवनानुभव से प्राप्त किया था । शिल्प- संसार इस विवेचन का विषय नहीं है, पर निर्विवाद है कि तुलसी का काव्यकौशल उनके सामाजिक-सांस्कृतिक अभिप्राय को पूरी क्षमता से व्यक्त करता है और यहीं तुलसी तुलसी हैं। बालकांड के आरंभ में राम-सीता की वंदना करते हुए उन्होंने वाणी और अर्थ की अभिन्नता का स्मरण किया : गिरा अरथ जल बीचि सम कहियत भिन्न न भिन्न और इसके निर्वाह में सफलता प्राप्त की । भाषा के इतने स्तर अन्यत्र मिलना कठिन हैं, जो सभी रसों की निष्पत्ति में सक्षम हों । अवधी के तो वे कविशिरोमणि हैं ही, विनयपत्रिका, कवितावली, गीतावली उनके ब्रजभाषा अधिकार का साक्ष्य हैं । छंद के कई प्रचलित रूपों का, उन्होंने उपयोग किया और दोहा - चौपाई को ऐसी लयात्मकता दी कि उनकी कविता लोककंठ में समा गई । पार्वती मगंल, जानकी मंगल, नहछू आदि कृतियाँ तो लोक के सामान्यजन के लिए ही रची गई हैं । बदले समय की कई चुनौतियों के बावजूद, तुलसी की सर्जनशीलता की साख कायम है और पाठक महाकवि से संवाद कर स्वयं को संवेदन - संपन्न पाता है । जैसे तुलसी ने अपने समय की चुनौती स्वीकार की, वैसे ही वे हर समय में नयी पहचान के लिए चुनौती देते रहेंगे, सामान्यजन के प्रिय कवियों में वे शीर्ष पर हैं ही।
तुलसीदास : सुरसरि सम सब कहँ हित होई / 211