________________
है : द्विज श्रुति बेचक और विनयपत्रिका (139) के लंबे पद में तथाकथित उच्च वर्ग की पतनशील स्थिति है :
प्रभु के बचन, बेद-बुध-सम्मत, 'मम मूरति महिदेवमई है ' तिनकी मति रिस राग - मोह-मद, लोभ लालची लीलि लई है । राज- समाज कुसाज कोटि कटु कलपित कलुष कुचाल नई है नीति, प्रतीति प्रीति परमित पति हेतुबाद हठि हेरि हई है।
तुलसी सवर्णों, विशेषतया ब्राह्मणवर्ग के समर्थन में अंध-भाव से उसी प्रकार प्रस्तुत नहीं हैं, जैसे वे दायित्वविहीन राजाश्रय को स्वीकृति नहीं देते। प्रमाण यह कि उन्होंने जाति-संप्रदायविहीन व्यवस्था के रूप में ज्ञानसमन्वित भक्तिमार्ग का संधान किया और राजाश्रय को ठुकराते हुए, रचना के सांस्कृतिक दायित्व में अग्रसर हुए । मध्यकालीन समय को लेकर महाकवि की मूल चिंता मूल्य-मर्यादा संसार को लेकर है । यदि उच्चतर मानव- मूल्य नहीं होंगे, तो मनुष्यता का क्या होगा ? और यदि सामाजिक नैतिक मर्यादाओं का पालन नहीं किया जायगा तो स्थिति अराजक होगी । मेरा विचार है कि हर समय में सजग प्रतिभा अपने वर्तमान से विक्षुब्ध और असंतुष्ट भी होती है, इसलिए अपना प्रतिकार / प्रतिवाद भाव व्यक्त करती है । इस दृष्टि से सार्थक रचना एक ईमानदार प्रतिपक्ष भी है, सांस्कृतिक स्तर पर । विनयपत्रिका के इसी पद में मूल्य-मर्यादाओं के विनष्ट होने के प्रति कवि की चिंता है : विश्वास, प्रेम, मर्यादा, लोकाचार, सत्य, शान्ति, उपकार, ज्ञान- भक्ति सब बिला गए हैं। चिंता है कि पृथ्वी आनन्द-मंगल से शून्य हो जाएगी : मही मोद मंगल रितई है । इसी में एक पंक्ति आती है कि ऐसा अन्यायी समय कि सज्जन कष्ट में, दुष्ट मगन : शांति सत्य, सुभ रीति गई घटि बढ़ी कुरीति, कपट-कलई है। सीदति साधु, साधुता सोचति, खल बिलसत, हुलसति खलई है । यह वस्तुस्थिति है, एक मूल्यहीन समय-समाज की और मध्यकालीन यथार्थ के संकेत, समय के प्रति तुलसी की सजग दृष्टि के प्रमाण हैं। कबीर की तुलना में उनका आक्रोश अधिक संयत है, पर उनकी सजगता और कवि-प्रतिबद्धता निर्विवाद है । जहाँ कहीं तुलसी को अवसर मिला है, उन्होंने समाज की विसंगतियों पर टिप्पणी की है, पर उनकी विचारणा और समाजदर्शन में उसके सुधार की चिंता भी है, यह उल्लेखनीय है ।
समाज में मर्यादाओं की स्थापना को तुलसी आवश्यक मानते हैं, पर इसका यह अर्थ नहीं कि वे किसी ऐसी रूढ़ि का समर्थन करते हैं, जिससे निहित स्वार्थों की पूर्ति होती हो । बुद्धिजीवी ब्राह्मण वर्ग की प्रज्ञा शिथिल होती है, तो वह कर्मकाण्डी पुरोहितवाद की ओर मुड़ जाता है और एक अवांछित व्यवसाय का आरंभ होता है : पुरोहितिहिं करम अति मंदा । कर्मकांड में बौद्धिक तत्त्व निकल जाता है और उसका स्थान अंधविश्वास, पाखंड को मिल जाता है। धर्म-दायित्वबोध है, विवेकपूर्ण श्रद्धा का प्रतीक, पर यदि उसका स्थान आतंक और भय ले लें तो दुर्घटना होगी । तुलसी
तुलसीदास : सुरसरि सम सब कहँ हित होई / 175