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________________ मार्ग तलाशा जिसका आधार वैचारिक है, पर मात्र तर्काश्रित नहीं, उसमें 'विमल विवेक' की प्रधानता है । विवेक, ज्ञान बार-बार तुलसी में अनेक रूपों में आते हैं और इन्हें महाकवि की रचनाशीलता का मूलाधार कहा जा सकता है। कोरा भाववाद निष्प्रयोजन होता है, पुरोहितवाद-कर्मकांड को व्यवसाय की भी सुविधा देता है, इसलिए तुलसी ने रचना का पुष्ट वैचारिक आधार निर्मित किया, उसे व्यापक जीवन से संबद्ध किया और रामकथा में उसे चरितार्थ किया, चरित्रों के कर्म-भरे व्यक्तित्व से । तुलसी कहते हैं कि उन्हें राम का बल है : तेहि बल मैं रघुपति गुन गाथा, कहिहउँ नाइ राम पद माथा । रामकथा के सभी रामभक्त पात्र कर्मवान हैं, पर सारा श्रेय वे राम को समर्पित करते हैं । इसका यह अर्थ नहीं कि राम का उपयोग किसी चमत्कार के रूप में है, यद्यपि राम का वैशिष्ट्य अपने स्थान पर सुरक्षित है, पर पात्रों के अहंकार का विलयन व्यक्तित्व के सामाजीकरण के लिए आवश्यक है। परशुराम का भी अहंकार टूटता है : अनुचित बहुत कहेउँ अग्याता, छमहु छमा मंदिर दोउ भ्राता । रावण मूर्तिमान दंभ है, उसे समझाया-बुझाया जाता है, चेतावनी दी जाती है, पर वह नहीं मानता और राम द्वारा मारा जाता है। पार्वती का प्रश्न स्वाभाविक है कि एक ओर राम हैं जो शंकर के उपास्य हैं, दूसरी ओर रावण है जो स्वयं को शंकर - उपासक कहता है । होगा क्या ? शंकर का उत्तर है : जानि गरल जे संग्रह करहीं, कहहु उमा तैं काह न मरहीं। जानबूझकर विष का संग्रही मरेगा क्यों नहीं ? अवश्य मरेगा । 1 तुलसी ने एक कठिन समय में कवि-कर्म का निर्वाह किया, और इसे उनके व्यापक सांस्कृतिक दायित्व के संदर्भ में देखना चाहिए। इस दृष्टि से उनके कई रूप उभरते हैं : संत, समाज-सुधारक से लेकर उनके काव्य- कौशल तक । रचनाओं में अनेक दार्शनिक-वैचारिक प्रसंग हैं : नवधा भक्ति, सगुण-निर्गुण, ज्ञान- भक्ति, संत - असंत, कर्म-वैराग्य, वर्ण-जाति आदि । जीवन को वैविध्य में स्वीकारते हुए, एक सजग विचारक के रूप में वे टिप्पणियाँ करते हैं, जिनमें कुछ को लेकर विवाद भी उपजे हैं, जैसे ब्राह्मण, शूद्र, नारी, वर्ण आदि के विषय में उनकी कुछ पंक्तियाँ । सीमाएँ सबकी होती हैं, जिसमें समय की भी भूमिका होती है । और इस दृष्टि से महाकवि की हर टिप्पणी का औचित्य बताना आवश्यक नहीं है । पर समग्रता में देखें तो उनकी समाजदृष्टि उदात्त दिखाई देती है, खंड-खंड देखना और मनचाही व्याख्या करना एक प्रकार का कुतर्क है । तुलसी के मानववाद को विवेचित करते हुए डॉ. रामविलास शर्मा कहते हैं : 'वर्ण और जाति को चुनौती देता हुआ तुलसी का व्यंग्य स्वर : कौन धौं सोमयागी अजामिल अधम कौन गजराज धौं बाजपेयी । इससे स्पष्ट है कि तुलसी भक्ति सभी जातियों और वर्णों के लोगों को मिलाने वाली थी' (परंपरा का मूल्यांकन, पृ. 77 ) । तुलसी की प्राणवान रचनाशीलता स्वयं समर्थ है, जो कई शताब्दियाँ पार कर हम तक चली आई है, और सामान्यजन में व्यापक धरातल पर स्वीकृत है, उसे किसी पैरवीकार की अपेक्षा नहीं। पर उनकी नारी - दृष्टि को लेकर जो टिप्पणियाँ की 172 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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