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________________ तुलसीदास : सुरसरि सम सब कहँ हित होई तुलसी हिन्दी के सबसे जनप्रिय कवियों में जिनकी व्याप्ति ऐसी कि रामकथा को, उनमें एक नया विस्तार मिला और वह लोकसाहित्य में भी रागात्मकता से स्वीकारी गई। चित्र, संगीत, मूर्ति, नाट्य आदि में रामकथा व्यक्त हुई और इस प्रकार वह पोथियों से बाहर निकलकर विराट लोकसंवेदन का अविभाज्य अंश बनी, लगभग तदाकार हो गई। पर यह कहना तुलसी के साथ न्याय नहीं होगा कि महाकवि को रामगाथा का पूरा लाभ मिला और व्यापक संवाद में सुविधा हुई। यह एक अंश तक ही सही हो सकता है, पर वास्तविकता यह है कि क्लासिकी भाषा संस्कृत के वर्चस्व को तोड़ते हुए उन्होंने लोकभाषा में रचना की और इस प्रकार वृहत्तर जनसमुदाय को संबोधित करने का प्रयत्न किया। वे पंडिताई और शास्त्र की सीमाएँ समझते थे, इसलिए उन्होंने जनभाषा का चुनाव किया। वाल्मीकि, कालिदास, भवभूति से चली आती रामकाव्य परंपरा को उन्होंने नयी अर्थ-व्यंजनाएँ दीं, काव्य-नायक राम को मध्यकाल की उस भूमि पर प्रस्तुत किया, जिसमें वे रचना कर रहे थे और यहाँ तुलसी के राम वाल्मीकि से पृथक् हो जाते हैं । वाल्मीकि रामायण का आरंभ ही महाकवि की इस जिज्ञासा से है कि इस समय संसार में गुणवान, वीर्यवान, धर्मज्ञ, कृतज्ञ, सत्यवादी, दृढ़व्रती, सदाचारी, सर्वकल्याणकारी, विद्वान्, प्रियदर्शन, आत्मवान, जितक्रोध, कान्तिमान कौन है ? नारद विस्तार से राम के गुणों का बखान करते हैं। वात्मीकि और तुलसी में समय तथा दृष्टि का जो अंतर है, वह उनके काव्य में परिलक्षित है, इसे ध्यान में रखना होगा। रामचरितमानस में तुलसी सावधान हैं और वे सीतानिष्कासन का प्रसंग छोड़ देते हैं क्योंकि उससे राम की मर्यादा पर आँच आती थी। गीतावली के अंत में इससे संबद्ध कुछ अंश अवश्य आए हैं, वाल्मीकि का स्मरण करते हुए। तुलसीदास : सुरसरि सम सब कहँ हित होई / 167
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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