SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 158
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ था, उससे सूर सुपरिचित थे और अपने भावों की अभिव्यक्ति के लिए उन्होंने उसका सक्षम उपयोग किया। लोकोत्सव के दृश्य, लोकगीतों की लय के साथ यहाँ उपस्थित हैं । शास्त्रीय संगीत और लोकगीतों की समन्वित भूमि पर निर्मित सूर के पद वाचिक परंपरा का अविभाज्य अंग बन गए, और भजन - गायन, कीर्तन से जुड़कर लोक में व्याप गए। लोकउपादानों के उपयोग से सूर ने अपने काव्य को वस्तु वर्णन के स्तर पर सांस्कृतिक प्रामाणिकता से संपन्न करने का प्रयत्न किया है पर वहाँ वैसी वर्णनात्मकता नहीं है, जैसी जायसी में प्राप्त होती है। उनमें दृष्टि-भेद भी है और काव्य- माध्यम का अंतर भी । जायसी के यहाँ तो खान-पान, भोजन, वनस्पति आदि की पूर्ण सूचियाँ ही मिल जाती हैं पर सूर ने लोकउपादानों का उपयोग अपनी अभिव्यक्ति की समृद्धि के लिए किया है । यहाँ वृक्ष, लता, पुष्प, उत्सव, लोकविश्वास, संगीत, पशु-पक्षी, वस्त्र आभूषण आदि का उल्लेख पर्याप्त मात्रा में आया है । पर किसी कवि का कौशल यह कि वह वस्तुओं को संवेदन में अन्तर्भुक्त कैसे करे कि वह काव्य-संपत्ति में विलयित हो जाय। शोधकर्ताओं ने सूचियाँ बनाई हैं जिससे प्रमाणित करने का प्रयत्न किया है कि सूर के काव्य में ब्रज उपस्थित है । पर कवि रूप में उनका कौशल यह कि लोकजीवन उनकी रागात्मकता का एक अंग है, आंशिक रूप में ही सही । भाव-परिवर्तन के साथ दृश्य बदलते हैं क्योंकि मनोजगत् दूसरा हो जाता है । जो वृंदावन गोपिकाओं के लिए कृष्ण-लीला का प्रमुख स्थल रहा है, उसी के प्रति वियोग में एक दूसरी मनःस्थिति है : मधुबन तुम क्यों रहत हरे, बिरह बियोग स्यामसुंदर के, ठाढ़े क्यौं न जरे (3828)। सूर का लोकसंसार प्रायः वहाँ अधिक रमता है, जिसे 'गोप - संस्कृति' भी कहा जा सकता है, जहाँ तथाकथित नैतिकता की जड़ अवधारणा नहीं है । ब्रजमंडल में मथुरा-कला का उल्लेख विद्वानों ने किया है और उनका विचार है कि 'गुप्तों' के समय कला में एक नया मोड़ आया और भाव - सौंदर्य की ओर अधिक ध्यान दिया जाने लगा। सौंदर्य के मानदंड बदले और मूर्ति, चित्र, साहित्य आदि में इसे देखा जा सकता है (नीलकण्ठ पुरुषोत्तम जोशी : मथुरा की मूर्तिकला, पृ. 27 ) । मध्यकाल तक आते-आते सौंदर्य दृष्टि में जो परिवर्तन हुए, उन्हें भी ध्यान में रखना होगा, जिससे सूर की लोकदृष्टि प्रभावित हुई। एस.टी. नरसिंहाचारी ने इसका विवेचन किया है : 'सूरसागर में सौंदर्य के वस्तून्मुख निरूपण की अपेक्षा अनुभूति और प्रभावमूलक अभिव्यक्ति को अधिक विस्तार मिलता है । इस तरह श्रव्य भाषा में दृश्य रूप को मूर्त करने की कठिनाई दूर हो जाती है' ( सूर की सौंदर्य चेतना, पृ. 261 ) । सूर जिस जनसंस्कृति को अभिव्यक्ति देते हैं, उसमें कृष्ण के माध्यम से पूरा गोकुल सम्मिलित है । इस दृष्टि से वे सामूहिक चेतना के गायक - कवि हैं और हर दृश्य में समाज को लेकर चलना चाहते हैं, जिसका एक प्रमाण कृष्ण की बाल लीला है। डॉ. वीरेंद्र मोहन इसे कबीलाई संस्कृति से जोड़कर देखते हैं (तुलसी और सूर : मानव- मूल्य, पृ. 85 ) । सूरदास : कहाँ सुख ब्रज कौसौ संसार / 163
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy