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________________ पर प्रकृति की रमणीय भूमिका है और निमंत्रण देता है वंशी-वादन : हरि-मुखं सुनत बेनु रसाल, बिरह व्याकुल भई बाला, चली जहँ गोपाल (1613)। मुरली-ध्वनि के कई पद सूर ने इस प्रंसग में रचे हैं। कुल-कानि वेद-मर्यादा के. अतिक्रांत की चर्चा कई बार आई है, जिसके माध्यम से सूर वैयक्तिकता का निषेध कर, सामाजिक चेतना का संकेत भी करना चाहते हैं (1621) : चली बन बेनु सुनत जब धाइ मातु-पिता बांधव अति त्रासत, जाति कहाँ अकुलाइ सकुच नहीं, संका कुछ नाहीं, रैनि कहाँ तुम जाति जननी कहति दई की घाली. काहे कौं इतराति मानति नाहिं और रिस पावति, निकसी नातौ तोरि जैसे जल-प्रवाह भादौं कौ, सो को सकै बहोरि ज्यौं केंचुरी भुअंगम त्यागत, मात-पिता यौं त्यागे सूर स्याम के हाथ बिकानी, अलि अंबुज अनुरागे शृंगार, प्रेम का निर्वाह जिस प्रतिभा की माँग करता है, उसमें यह आवश्यक है कि देहवाद रचना पर हावी न हो जाय और कवि उदात्त संकेत की स्थापना कर सके। भक्तिकाव्य में तो यह और भी अनिवार्य है। गोपिकाएँ जब लौकिक बंधनों का निषेध करती हैं, तब निश्चय ही उनकी स्वच्छंदता एक ओर चरागाही संस्कृति की उपज है, दूसरी ओर यह संकेत भी कि कृष्ण के लिए उनका राग-भाव अधिक उदात्त भूमि पर है। वे गुण-रूप के प्रति समर्पित हैं, अपनी संपूर्ण निष्ठा में; जिसे भक्ति में प्रपत्ति, शरणागति भाव कहा गया, वह यहाँ रागात्मक भाव है। भागवत में भक्ति की जो कोटियाँ हैं, उनमें गोपिकाएँ पूर्णतया निःस्वार्थ भाव से कृष्ण को समर्पित हैं, यदि कोई स्वार्थ कहा जा सकता है, तो वह है, कृष्ण-दर्शन की लालसा । इसके लिए भ्रमरगीत-प्रसंग को समझना होगा जिसे कई बार सगुण का मंडन और निर्गुण का खंडन कह दिया जाता है। इसके मूल में गोपिकाओं की दर्शन-लालसा है, कृष्ण निर्गुण-रूप होंगे, तो फिर दर्शन किसका ? भ्रमरगीत में सर्वाधिक चर्चा नेत्रों की है-उन्हीं से प्रेम का आरंभ हुआ और पीड़ा का भार सर्वाधिक वे ही वहन करते हैं। इन्हें सुर ने पात्र की तरह जीवंत किया है : और सकल अंगनि तैं ऊधौ, अँखियाँ अधिक दुखारी, अतिहिं पिरातिं सिरातिं न कबहूँ, बहुत जतन करि हारी (4188), अँखियाँ हरि दरसन की भूखी (4175), अँखियाँ हरि दरसन की प्यासी (4176), पूरनता इन नैननिं पूरे (4194), हरि मुख निरखि निमेष बिसारे, ता दिन तैं ये भए दिगंबर, इन नैननि के तारे (4184)। एक पद में सूर ने नेत्रों की व्यथा का मार्मिक चित्र खींचा है (4196) : मधुकर सुनौ लोचन बात रोकि राखे अंग अंगनि, तऊ उड़ि-उड़ि जात 154 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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