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प्रमख प्रस्थान है और सूर के कृष्ण के प्रति सबका आकर्षण भी इसी प्रेम-भाव के अन्योन्याश्रित संबंध पर आश्रित है। सूर ने कृष्ण के लिए अनेक पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग किया है, पर वे समानार्थी मात्र नहीं हैं, उनसे कृष्ण के विशिष्ट गुणों का बोध होता है-माखनचोर, मुरलीमनोहर, गिरिधर आदि। नवम् स्कंध तक वर्णनात्मक अंश हैं, जहाँ महाभारत के कुछ प्रसंग, अवतार-चर्चा, भक्ति-विवेचन है और सात कांडों की संक्षिप्त रामकथा भी। पर वर्णनात्मकता के बीच कृष्ण के प्रति भक्तिभाव का निवेदन है : जो सुख होत गुपालहिं गाएँ/सो सुख होत न जप-तप कीन्हें, कोटिक तीरथ न्हाएँ (349)।
सर बालकृष्ण से सौंदर्य का आरंभ करते हैं जिससे मानव रूप के उद्घाटन में सुविधा होती है। कृष्ण-जन्म स्वयं में आनंद-उल्लास का क्षण है, जिसमें सब सम्मिलित हैं, कवि स्वयं भी। जिस तल्लीनता से ये दृश्य उरेहे गए हैं, उससे प्रमाणित होता है कि कवि अपनी पूरी रागात्मकता के साथ यहाँ उपस्थित है। यही प्रेमभाव भक्तिभाव का प्रस्थान है : उठी सखी सब मंगल गाइ/...सूरदास, ब्रजबासी हरणे, गनत न राजा राइ। कृष्ण के जन्म में ही सूर सामाजिक चेतना का बीज-वपन करते हैं। कृष्ण-जन्म में ऐसा सुख कि वर्गगत दूरियाँ मिट जाती हैं। सामाजिक सुख का यह दृश्य सूर ने गोकुल के नर-नारी-समाज की उल्लासपूर्ण प्रतिक्रियाओं द्वारा व्यक्त किया है : 'आज नंद के द्वारै भीर' (643) और आपस में ही सामूहिक निर्णय कि (638) :
आजु बन कोऊ वै जनि जाइ सब गाइनि बछरन समेत, लै आनह चित्र बनाइ ढोटा है रे भयौ महर कैं, कहत सुनाइ-सुनाइ ।
सबहि घोष मैं भयौ कुलाहल, आनंद उर न समाइ गोकुल की स्वतःस्फूर्त सहज प्रसन्नता के मूल में कृषि-चरवाहा समाज की कबीलाई संस्कृति भी है, जहाँ सब सुख-दुख के समभागी होते हैं। एक संपूर्ण अखंडित समाज होता है, जिसे व्यापक अर्थ में आदिम साम्यवाद भी कहा गया। नन्द-यशोदा के घर पुत्र-जन्म किसी सामंत के प्रति विवश प्रदर्शन नहीं है, सूर इसे सहज भूमि पर प्रतिष्ठित कर, पूरे प्रसंग को सामाजिकता देते हैं और इसलिए 'गनत न राजा राइ' पंक्ति एक से अधिक बार आती है। भाव-प्रसार होता है, कृष्ण के सौंदर्य-वर्णन से, जिसमें सूर निश्चित ही सबसे कुशल कवियों में हैं। वे कृष्ण को 'शोभा-सिंधु' कहकर संबोधित करते हैं : 'सोभा-सिंधु न अंत रही री, नंद-भवन भरि पूरि उमंग चलि, ब्रज की बीथिनि फिरति बही री,...सूरदास प्रभु इन्द्र-नीलमनि, ब्रज-बनिता उर लाइ गही री' (पद 647)। प्रथम दर्शन में प्रेम की यह परिकल्पना सूर के उस रागभाव की द्योतक है, जो अपनी उदात्तता में सर्वोत्तम धरातल पर जाता है, सब कुछ को अतिक्रमित करता हुआ। ऐसे निर्मल सौंदर्य के प्रति अर्पित होकर, सर्वप्रथम हम उस
सूरदास : कहाँ सुख ब्रज कौसौ संसार / 139