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________________ पंडित भूल न जानै चालू। जीउ लेत दिन पूछ न कालू सती कि बौरी, पूछहि पांड़े। औ घरि पैठि कि सैंतें भाड़े मरै जो चलै गंग-गति लेई। तेहि दिन कहाँ घरी को देई मैं घर-बार कहाँ कर पावा। घरी के आपन अंत परावा __ हौं रे पथिक पखेरू, जेहि बन मोर निबाहु खेलि चला जेहि बन कहँ, तुम अपने घर जाहु। जायसी के स्वप्नलोक में विकल्प के जो संकेत हैं, उन्हीं से उनका समाजदर्शन निर्मित है। उदार सूफी पंथ ने उन्हें वह व्यापक दृष्टि दी, जहाँ सारे भेद मिट जाते हैं : का पूछहू अब जाति हमारी, राजि छाँड़ि कै भएउ भिखारी (रत्नसेन सूली खंड)। जिस बहुलता से वे भारतीय देवत्व का स्मरण करते हैं, वह उनका उदार पंथ है, उन्होंने विशेष रूप से पार्वती-महेश खंड की नियोजना की जहाँ अवढर दानी शंकर रत्नसेन पर कृपालु होते हैं : कहेन्हि न रोव, बहुत तें रोवा, अब ईसर भा दारिद खोवा । लक्ष्मी-समुद्र खंड में लक्ष्मी पद्मावती को आशीषती है : 'ना मरु बहिन, मिलिहि तोर पीऊ।' पर्व, धार्मिक विश्वास, व्रत-उपवास आदि जायसी की उदार दृष्टि का परिचय देते हैं। ‘मंडप गमन खंड' के आरंभ में ही रत्नसेन देवमूर्ति को प्रणाम करता है : नमो नमो नारायन देवा, का मैं जोग, करौं तोहि सेवा और बार-बार स्तुति-विनय कर दयामय से, कृपा की याचना करता है। जायसी के लिए इस प्रकार के प्रसंग केवल परंपरा-पालन नहीं हैं, वरन् उनकी उस उदार दृष्टि का 'बोध कराते हैं, जहाँ पार्थक्य के लिए स्थान नहीं है। जायसी की वाणी कबीर की तरह आक्रामक नहीं है, पर वे सरस भाव से जिस सांस्कृतिक सौमनस्य का संगीत रचते हैं, वह मध्यकाल में विरल है। लोकोत्तरता के संकेत के मूल में भी उच्चतर मूल्य-चिंताएँ हैं, भक्ति को प्रशस्त मानवीय आधार देती हुई। विवरणों को छोड़ दें, तो जहाँ कवि-मन रमता है, वहाँ कविता अपनी पूरी उठान और रसमयता में होती है। मनुष्य के साथ प्रकृति और पक्षी भी इसमें सम्मिलित हैं : बसहि पंखि बोलहिं बहु भाखा, करहिं हुलास देखि कै साखा। जिस प्रेमभाव का प्रतिपादन जायसी ने किया, वह मध्यकालीन सामंती समाज का विकल्प है, कई स्तरों पर जिसमें जातीय सौमनस्य से लेकर देहवाद से ऊपर उठने तक का अभिप्राय प्रतिपादित है। जीवन-प्रसंगों के भीतर से जायसी ने इसे संभव किया, यह उल्लेखनीय है और इससे उनकी लोकचेतना प्रमाणित होती है। जायसी के काव्य में जो संसार उभरता है, उसमें कवि-अभीप्सा का बड़ा हिस्सा ! है, जिसे अध्यात्म-रहस्यवाद तक सीमित कर देने से पूर्ण न्याय नहीं हो पाता। उल्लेखनीय यह कि यहाँ जो कुछ भी है, वह लोकजीवन के भीतर से होकर आया है। कई बार अवांतर प्रसंग, विवरण-वृत्तांत इसमें बाधा बनते हैं, पर कवि-कौशल यह कि वह बराबर सजग है और बार-बार प्रेम की अपनी मूलभूमि पर लौटता है। 132 / भक्तिकाव्य का समाजदर्शन
SR No.090551
Book TitleBhakti kavya ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar
PublisherPremshankar
Publication Year
Total Pages229
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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