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________________ व्रत कथा कोष [ ७३७ देशकालभयाद्वापि संस्कर्तुं नैव शक्यते । नपादानां समादाय कर्तव्या प्रेतसक्रिया ॥ ज्ञातव्यं सतकं तस्य प्रायश्चित विधानतः । शान्तिकादिविधिं कृत्वा प्रोषधादिकसत्तपः । मृतस्यानिच्छया सद्यः कर्तव्य प्रेतसत्क्रिया । प्रायश्चितविधिं कृत्वा नैव कुर्यान्मृतस्य तु । भावार्थ :-बिजली, जल, अग्नि, चांडाल, सर्प, पशु, पक्षी, वृक्ष, व्याघ्र तथा अन्य पशु प्रादि के द्वारा मरण पाप कर्म से होता है । जो मरण स्वेच्छापूर्वक आत्मघात से होता है उसे दुर्मरण कहते हैं । देश काल के भयवश उसका दाह संस्कार राजाज्ञा लेकर हो करे और इसका प्रायश्चित शास्त्र के अनुसार जप, तप प्रोषधादि व्रतों द्वारा अवधि प्रमाण का शांति करे । यदि मरण अनिच्छापूर्वक हुआ तो तत्काल प्रतदाह करे, और इसके प्रायश्चित लेने की कोई जरूरत नहीं है । सूतक की तत्काल शुद्धि समारब्धेषु वा यज्ञमहान्यासादिकर्मसु । बहुद्रव्यविनाशे तु सद्यः शौचं विधीयते । भावार्थ :-यज्ञ महान्यास, जैसे बड़े-बड़े धार्मिक प्रभावना के कार्यों का समारम्भ कर दिया हो और अपने बहुत द्रव्य लग रहा हो, जिसका विनाश होता हो ऐसी दशा में सूतक या पातक कोई भी हो तत्काल शुद्धि कर अपना कार्य प्रारम्भ कर देना चाहिये। प्रवजिते मते काले देशान्तरे मते रणे । संन्यासे मरणे चैव दिनक सूतकं भवेत् ॥ भावार्थ:-जो गृहत्यागी दीक्षित हुआ हो, उत्कृष्ट क्षुल्लक पद ग्रहण किया हो, अथवा मुनि हुआ हो, अथवा देशान्तर में मरण हो, अथवा संग्राम में वा संन्यास में मरण हो तो एक दिन का सूतक होता है। - मृते क्षणेन शुद्धिः व्रतसहिते चैव सागारे। भावार्थ :-संग्राम, जल, अग्नि, परदेश, बाल संन्यास इनमें यदि व्रती श्रावक का मरण हो जाये तो तत्काल शुद्धि होती है ।
SR No.090544
Book TitleVrat Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar Maharaj
PublisherDigambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Ritual_text, Ritual, & Story
File Size21 MB
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