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व्रत कथा कोष
पवित्र बनाने का प्रयत्न करता है । प्रारम्भ और परिग्रह का उतने समय के लिए त्याग करता है । प्रभु की पूजा करता हुआ उनके गुणों का चितवन करता है । अपनी प्रात्मा में पवित्रता की भावना भरता है । सारांश यह है कि वह अपनी भावना मुनि धर्म को प्राप्त करने की करता है । व्रती श्रावक नित्य और नैमितिक दोनों प्रकार के के व्रतों का पालन करता हुआ अपनी आत्मा को उज्जवल, निर्मल और कर्मकलंक से रहित करता है। व्रत आत्मा के शोधन में अत्यन्त सहायक होते हैं । इस व्रत-तिथि निर्णय में प्राचार्यों ने व्रतों के लिए तिथियों का निश्चय किया है । जैनाचार में व्रत उपवास के लिए तिथियों का विधान किया गया है । यहां आचार्य ने कितने प्रमाण तिथि के होने पर व्रत करना चाहिए, इसका विस्तार से निरुपण किया है । योग्य समय में व्रत करने से विशेष फल की प्राप्ति होती है। तिथिहासे प्रकर्तव्य किं विधानं ? सकला तिथिः का ? कथं मत निर्णयः ? इति चेतदाहः ?
अर्थ-तिथि के ह्रास में व्रत करने का क्या नियम है ? कब व्रत करना चाहिए ? सकला/सम्पूर्ण तिथि क्या है ? उसमें किस प्रकार का मत व्यक्त किया गया है ? इस प्रकार के प्रश्न पूछे जाने पर प्राचार्य कहते हैंतिथि ह्रास में व्रत करने का विधान
त्रिमुहूर्तेषु यत्रार्क उदेत्यरतं समेति च।
सा तिथिः सकला ज्ञेया उपवासादि कर्मरिण ॥११॥
संस्कृत व्याख्या- यस्यां तिथौ त्रिमुहर्तेषु अग्रे. वर्तमानेषु षट्स्वर्कः उदेति सा तिथिः देवासिकव्रतेषु रत्नत्रयान्हिकदशलाक्षणिक रत्नावलो कनकावली द्विकावल्येका. वलोमुक्तावलोषोडशकरणादिषु सकला ज्ञया । चकरात् या तिथिः उदयकाले त्रिमुहू
द्दिनागतदिवसेऽपि वर्तमाना तिथ्युदयकाले त्रिमुहूर्तादिना सा अस्तंगतातिथिया । तद्वतं गतदिवसे एव स्यात् अस्तिमनकाले त्रिमुहूर्ताधिकस्वादिति हेतोः । च शब्दात द्वितोयाऽर्थोऽपि ग्राह्यः त्रिमुहूर्तेषु सत्सुयस्यामर्कः अस्तमेति सा तिथिः जिनरात्रिर्गगनपचमीचंदनषष्ठ्यादिषु नैशिकव्रतेषु सकला ग्राह्या इति तात्पर्यार्थः ।
अर्थ-देवासिक व्रतों में रत्नत्रय, अष्टान्हिका, दश लक्षण, रत्नावली, एकावली, द्विकावली, कनकावली, मुक्तावली, षोडशकारण प्रादि में सूर्योदय के समय की तीन मुहुर्त अर्थात् छह घटी से लेकर छह मुहूर्त अर्थात् बारह घटी तक उक्त व्रतों