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________________ व्रत कथा कोष [६१६ का असंख्यातवां भाग भी पूरा नहीं होता है, ऐसे अनन्त जीव हैं। उसको भी जीव ने किसी न किसी अवस्था में भोगा ही है । सन्तोष नहीं हुआ है अतः मन को वश कर संसार के सुख का त्याग करना, हमेशा उससे वैराग्य की भावना भाना संवेग है । ___शक्तिस्त्याग :- मनुष्य जब तक सासारिक वस्तु का, ममत्व का त्याग करता नहीं है तब तक उसे सच्चा सुख मिलता नहीं है। क्योंकि संसार के सब पदार्थ नाशवान हैं । यह विचार कर आहार, औषध, शास्त्र और अभयदान इस प्रकार चार प्रकार का दान करना चाहिए । धर्म की प्रभावना के लिए धन खर्च करना तथा सब वस्तुओं का थोड़ा-थोड़ा दान करना चाहिए। (७) शक्तिस्तप :-शरीर दुःख का कारण है, वह अनित्य, अस्थिर, अशुद्धिपूर्ण, कृतघ्न है । इस शरीर को कितना ही खिलाया पिलाया या हृष्ट पुष्ट किया पर शरीर अपना बनता नहीं है । वह अपने को छोड़ कर जाता है इसलिए उसके पोषण की चिन्ता करना व्यर्थ है । पोषण करते हुए तपश्चरण करना चाहिए, अपनी शक्ति के अनुसार तप करना चाहिए । तप से इन्द्रियों के विषयों की लोलुपता नष्ट होती है । तप से प्रात्मोन्नति होती है । शारीरिक सुखोपभोग भोगने की इच्छा तप से नष्ट होती है । तप से सर्व साध्य होता है । इसलिए शक्ति अनुसार तप करना चाहिए। (८) साधुसमाधि :-सारे जीवन का कल्याण करने की धर्म की प्रवृत्ति धर्मात्माओं से मिलती है। धर्मात्मा में श्रेष्ठ सम्यगरत्नत्रयधारी दिगम्बर साधु हैं । उनकी सेवा करना, उनके ऊपर पाया हुअा संकट दूर करना साधु समाधि है। (६) वैयावृत्तरण :–साधु अथवा साधर्मी बन्धु किसी रोग से पीड़ित हो तो उसे दूर करने के लिए औषध देना। उनकी योग्य प्रकार से शुश्रूषा करना, आहार वगैरह में औषध देना आदि वैयाकृत्तकरण है। (१०) अर्हतभक्ति :-अरिहंत भगवान उपदेश देकर स्वयं भी मोक्ष जाते हैं और सब लोगों को मोक्ष का रास्ता बताते हैं । इसलिये उनके गुणों पर अनुराग करना, उनकी भक्तिपूर्वक पूजा करना, ध्यान करना यही भावना अर्हतभक्ति भावना है।
SR No.090544
Book TitleVrat Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar Maharaj
PublisherDigambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Ritual_text, Ritual, & Story
File Size21 MB
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