________________
व्रत कथा कोष
[ ६१७
छुटने के लिये षोडशकारण व्रत करना चाहिए जिससे वह स्त्रीलिंग छेद कर मोक्ष जायेगी । फिर मुनि महाराज ने उसे व्रत करने की विधि बतायी ।
(१) दर्शन विशुद्धि : - संसार में जीव का शत्रु मिथ्यात्व है और मित्र सम्यक्त्व है, इसलिए जीव को पहले मिथ्यात्व का त्याग करना इष्ट है । मिथ्यात्व का अर्थ है विपरीत श्रद्धान, अतत्व श्रद्धान । दर्शन निर्दोष होना दर्शन विशुद्धि है । उसके पाठ अंग हैं ।
(१) निःशंकित : - - धर्म के ऊपर शंका न करना कितनी भी मुसीबत में आ जाय पर सच्चे धर्म पर शंका न करना । उस पर दृढ़ विश्वास रखना ।
(२) निःकांक्षित्व :- इहलोक या परलोक में विषय-भोग की इच्छा न रखना, दूसरे धर्म में कुछ चमत्कार देखकर उस मत को अच्छा मान लेना और सच्चे धर्म पर श्रद्धा छोड़ देना । अपनी श्रद्धा सच्चे धर्म पर होना ।
निविचिकित्सा : - पदार्थों को मिथ्याभाव से अशुद्ध समझना, अर्हत परमेष्ठी के उपदेश में यह बात कठोर कही है या सब को मानना पर एक को नहीं मानना यह एक ही बात नहीं होती तो धर्म सरल था ।
-:
श्रमूढ़ दृष्टित्व
- नाना प्रकार के मत एक जैसे ही दिखते हैं पर उनकी परीक्षा कर उनमें मिथ्या मत को न मानना, सच्ची बात समझना, सम्यक्त्व पर दृढ़ श्रद्धा रखना अमूढ दृष्टि अंग है ।
(५) उपगूहन अंग :- साधर्मी जो दूसरों की संगति से कोई दोष उत्पन्न हुए हों तो उसे उपदेश देकर दृढ़ करना, यदि कोई पुरुष धर्म से च्युत हो रहा है तो उसे दृढ़ करना।
(६) स्थितिकरण अंग :- - कर्म के उदय से किसी साधु या व्रती या किसी मनुष्य के भ्रष्ट होने की भावना हुई तो उसे दृढ़ करना या उसे धर्म में स्थित करना ही स्थितिकररण अंग है ।
(७) वात्सल्य श्रंग : - धार्मिक लोगों पर प्रेम करना, उनके प्रति प्रेम बढ़ाना वात्सल्य है जैसे गौ अपने बच्चे के प्रति प्रेम करती है वैसे करना ।