________________
५६८ ]
व्रत कथा कोष
पहुंचाने के लिये गये । मुनि महाराज तो मौन होकर जा रहे थे पर उसके मन में घर वापस जाने का विचार था, पर महाराज बोलें तब वह जाये, पर महाराज कुछ बोले नहीं । महाराज को पूछे बिना कैसे घर जाना ? ऐसा सोचकर गया नहीं।
अन्त में वे दोनों गुरु जहां बैठे थे वहां पहुंचे, भवदेव की पहचान गुरु ने कर दी । गुरु ने भव्य जानकर उसे उपदेश दिया, भवदेव ने तत्काल दीक्षा ली। परन्तु भवदेव का लक्ष अपनी नवपरिणीता पत्नी की ओर था । पर वह संघ के साथ बिहार करने लगा जिससे वह अपने गांव नहीं जा सका।
बाद में कई वर्ष तक बिहार करते हुए वह उस नगर में आये । वहां गुरु को नमस्कार करके नगर में गये । प्रथम वे जिन-मन्दिर में गये । वहां उन्होंने नवदीक्षित प्रायिका को देखा । उनसे धर्म कुशल पूछकर महाराज जी ने पूछा कि “एक ब्राह्मण पुत्र अपनी नव-परिणीता पत्नी को छोड़कर मुनि दीक्षा लेकर चला गया था तो उस स्त्री का क्या हुआ ?"
उस प्रायिका ने उन मुनि महाराज को पहचान लिया था इसलिये बोली "मैं ही आपकी नवविवाहिता पत्नो थी। आपके जाने के बाद मैंने संसार प्रसार जानकर दीक्षा ले ली। अब इस मार्ग से च्युत नहीं होना है। हम निःशंक तपश्चरण करेंगे इसी में हमारा हित है।"
तब वे मुनि वापस गुरु के पास आये। मुनि को (गुरु को) अपना सब वृत्तान्त सुनाया और सबने प्रायश्चित लेकर फिर से दीक्षा ली। दोनों भाइयों ने विपुलाचल पर घोर तपश्चरण किया, समाधिपूर्वक मरकर सनत्कुमार देव हुये, अवधिज्ञान से अपना पूर्वभव जानकर कृत्रिम प्रकृत्रिम जिनमन्दिरों की वंदना की। वहाँ की आयु पूर्णकर भवदेव का जीव विदेह क्षेत्र में पुण्डरीकिणी नगरी के राजा वज्रदंत के पेट से सागरचन्द्र नामक पुत्र हुआ । और भवदेव का जीव वीतशोकपुर के राजा महायक्ष व उसकी पत्नी वनमाला के पेट से शिवकुमार नामक राजकुमार हुआ।
फिर बड़े होकर सागरचन्द्र ने मुनिदीक्षा ली। वे विहार करते हुए शोकपुर नगर में प्राये, चर्या के लिये नगर में प्रवेश किया। एक श्रावक ने नवधाभक्तिपूर्वक उन्हें आहार दिया। मुनि महाराज ने उसको अक्षयदानी हो ऐसा आशीर्वाद