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________________ १९८ ] व्रत कथा कोष हुई । चारों मन्त्री लज्जित हो नगर लौट गये । मुनिराज वहां से संघ में पहचे, गुरु को रास्ते की बात कह सुनाई । गुरु कहने लगे वत्स तुमने अच्छा नहीं किया मिथ्यादृष्टि मन्त्रियों से वार्तालाप करने से अब पूरे संघ पर उपसर्ग होगा । तुम जाओ और जहां मंत्रियों के साथ वाद हुआ था वहां जाकर ध्यानस्थ हो जायो । श्रु तसागर मुनिराज गुरु का आदेश सुनते ही वहां जाकर ध्यानस्थ खड़े हो गये। रात्रि होने पर चारों ही मंत्री हाथ में तलवार लेकर संघ पर उपसर्ग करने चले । रास्ते में श्र तसागरजी को वाद को जगह पर ध्यान करते पाकर हमारा शत्र तो यहां पर हो है इसको मारकर आगे चलें ऐसा विचार कर चारों ही एक साथ ऊपर तलवार उठाये, उसी समय वनरक्षक देव ने पाकर उन चारों को ही वहीं कील दिया, चारों मंत्री जैसे के तैसे उपसर्ग करने की मुद्रा में वहां कीलित हो गये। प्रातःकाल हुआ, दर्शनार्थी लोग आने लगे, यह मंत्रियों का चरित्र देखकर आश्चर्य करने लगे सब लोग धिक् २ करने लगे कुछ लोगों ने जाकर राजा को समाचार कह सुनाये राजा शीघ्र ही वहां पर दौड़ा पाया, देखकर मन्त्रियों के ऊपर बड़ा क्रोधित हुआ। इतने में मुनिश्वर का ध्यान खुला यह सब देखकर, किसने धर्म की रक्षा के लिए इन मन्त्रियों को कोला है ? ऐसा कहते ही शोघ्र ही यक्षेन्द्र प्रकट हुा । मुनिराज के कहने पर मन्त्रियों को छोड़ दिया। मुनिश्री की क्षमा भावना देखकर धर्म की सब जगह जय जयकार होने लगी। राजा ने उन चारों मंत्रियों को नगर में लाकर काला मुह करके गधे पर बिठा कर नगर से बाहर निकलवा दिया, वो चारों ही मन्त्री निष्कासित होकर घूमते-घूमते हस्तिनापुर पहुचे । वहाँ का राजा पद्मरथ बड़ा ही धर्मात्मा था, लेकिन समीपवर्ती राजा के कारण मन में बहुत दुःखी हो रहा था। ये चारों ही वहां पहुंचे। राजसभा में जाकर राजा को आशीर्वाद देने लगे। मन्त्रियों ने देखा कि पद्मरथ का मन उदासीन दिख रहा है । वो चारों ही मंत्री दुःखी होने के कारण को जानकर कहने लगे, इसमें क्या बड़ी बात है, हम लोग आपके शत्र राजा को शीघ्र ही युद्ध में जीत कर बांध के आपके चरणों में लाकर डाल देते हैं, पहले हम आपका कार्य करते हैं, ऐसा कह वो चारों ही राजसभा से निकलकर समीपवर्ती राज्य के राजा को छल से बांधकर पद्मरथ राजा के चरणों में लाकर डाल देते हैं, पद्मरथ राजा उन चारों ही मन्त्रियों से बड़ा प्रभावित हुआ और कहने लगा कि मांगो क्या मांगते हो ? जो मांगोगे सो ही दूंगा।
SR No.090544
Book TitleVrat Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar Maharaj
PublisherDigambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Ritual_text, Ritual, & Story
File Size21 MB
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