________________
१५२ ]
व्रत कथा कोष
भव्य श्राविका चैत्यालय में अपना अनंतभव कर्महराष्टमी व्रत का विधान करने के लिए गयी थी, विधान की समाप्ति करके मंदिर के बाहर प्रायी और धर्मोपदेश सुनने के लिए मुनिराज के निकट में बैठ गई, उस समय एक गीदड़ पक्षी मंदिर के शिखर से अकस्मात मंदिर के प्रांगण में गिर पड़ा और विशेष वेदनाग्रस्त होकर मरणासन्न हो गया, तब यह देख कर रत्नमाला उस पक्षी के निकट गई और कहने लगी हे पक्षीराज, श्राज जो मैंने व्रत किया है उसका पुण्य में तुमको देती हूं तुम शांति से अपने प्राण छोड़ो, उसी वक्त यशोभद्र मुनिराज भी वहां आये और मरणासन्न पक्षी को पंच नमस्कार मंत्र देने लगे, पक्षी णमोकार मंत्र सुनता हुआ मर कर पांड्य देश के पाण्ड्य राजा की पट्टरानी नंदादेवी के गर्भ से घटातिकी नाम की कन्या होकर उत्पन्न हुई, जब वह कन्या थी, तब वही यशोभद्र नाम के मुनिराज बिहार करते हुए उस पद्म नगर में आये, आहार के समय नंदादेवी ने नवधा भक्ति से प्रहार दिया उसके घर पर दान के प्रभाव से पंचाश्चर्य वृष्टि हुई, यह सब देखकर सब को बहुत ही आनन्द हुआ, उस समय मुनिराज को देखते हो घटातिकी कुमारी को जातिस्मरण ज्ञान हुआ, निकट जाकर मुनिराज के चरणों में भक्तिपूर्वक नमस्कार करके बैठ गई, अपना पूर्व भव प्रपंच जानकर श्रादर से दोनों हाथ जोड़कर कहने लगी, हे स्वामिन इस रत्नमाला के द्वारा दिये गये व्रत के पुण्य के प्रभाव से आज में कन्या होकर उत्पन्न हुई हूं। इसलिए भवसिन्धुतारक अब उस व्रत का विधान मुझे बताओ मैं अब उस व्रत को यथाविधि पालन करना चाहती हूं, तब मुनिराज ने उसको सम्पूर्ण व्रत को ग्रहण कराया, मुनिराज अपने स्थान को वापस चले गये, प्रागे उस घार्तिक ने समयानुसार व्रत का पालन किया, उद्यापन भी किया, जब वह कन्या मासिक धर्म से होने लगी है ऐसा देखकर पांड्य राजा ने देवसेन राजा से घटार्तिकी का विवाह कर दिया, दोनों पति पत्नी आनन्द से अपना समय व्यतीत करने लगे, एक दिन दोनों पति पत्नी सहस्त्रकूट चैत्यालय की वंदना के लिए गए थे, भगवान को नमस्कार करके बाहर आये, मुनिराज का धर्मोपदेश सुनकर अपने नगर में वापस आये, सुख से राज्य करते हुए अंत में समाधिमरण पूर्वक मरकर स्वर्ग सुख का अनुभव करने लगे और प्रागे मोक्षसुख का भी अनुभव करने लगे ।