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व्रत कथा कोष ,
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सूर्यशुद्धि में सूर्य की राशि का शुभाशुभत्व तथा चान्द्रमास और चान्द्रतिथि पर पड़ने वाले सूर्य के प्रभाव का विचार किया जाता है ।
____ गुरु और शुक्र की शुद्धि तो देखी ही जाती है, पर विशेषतः इनके बलाबलत्व का विचार किया जाता है । शुक्र की अपेक्षा गुरु की शुद्धि अधिक माङ्गलिक कार्यो के लिए ग्रहण की गयी है। जब तक गुरु अनुकूल नहीं होता है तब तक विवाह, प्रतिष्ठा, उपनयन एवं व्रत ग्रहण आदि कार्य सम्पन्न नहीं किये जाते हैं, अतः व्रत के लिए गुरु और शुक्र के अस्त का विचार करना आवश्यक है।
प्रतिपदा और द्वितीया तिथि के व्रत की व्यवस्था
तिथेः षष्ठांशोऽपि व्रतकरनरैः सादरमतः, व्रतश्शुद्धोद्धर्थ सततमुदये विद्यत यतः । विहायेन्दु पूर्ण करनिकरविध्वस्ततिमिरं, द्वितीयेन्दुः सर्वैः कनकनिचयाभोऽपि नमितः ।।
अर्थ-व्रत करने वाले नम्रीभूत श्रावक को सर्वदा व्रत की शुद्धि के लिए उदय काल में रहने वाली षष्ठाँश प्रमाण तिथि को ग्रहण करना चाहिए । अपनी किरणों के समुदाय से अन्धकार को दूर करने वाले पूर्ण चन्द्रमा को छोड़ अर्थात प्रतिपदा तिथि के दिन तथा द्वितीया के दिन सूर्योदय काल में रहने वाली षष्ठांश प्रमाण तिथि को ही व्रत के लिए ग्रहण करना चाहिए।
विवेचन-काष्ठसंघ के प्राचार्यों ने पूर्णिमा, प्रतिपदा एवं द्वितीया तिथि में होने वाले व्रतों की व्यवस्था करते हुए बताया है कि समस्त तिथि का षष्ठांश मात्र व्रत के लिए ग्राह्य है । इसकी उपपत्ति बतलाते हुए उन्होंने कहा है कि तीस मुहूर्तों का एक दिन अहोरात्र होता है । इन तीस मुहूर्तों में ये पन्द्रह मुहूर्त दिन में और पन्द्रह मुहूर्त रात में होते हैं। रौद्र, श्वेत, मैत्र, सारभट, दैत्य वैरोचन, वैश्वदेव, अभिजित्, रोहण, बल, विजय, नैऋत्य, वरुण, अर्यमन और भाग्य ये मुहूर्त प्रत्येक तिथि में दिन को रहते हैं ।