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व्रत कथा कोष
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जब तिथि बढ़ जाती है तो इस व्रत की अवधि ग्यारह दिन की हो जाती है । तिथि बढने पर एक दिन घटाना नहीं है । व्रत की समाप्ति चतुर्दशी को की जाती है । तिथि घटने पर भी व्रत की समाप्ति चतुर्दशी को की जाती है । हाँ, पंचमी को व्रत प्रारम्भ न कर तिथिक्षय की स्थिति में चतुर्थी को व्रतारम्भ किया जाता है । सेनगण प्राचार्यों ने व्रत की समाप्ति की तिथि निश्चित कर दी है । व्रतारम्भ के सम्बन्ध में मूलसंघ और काष्ठासंघ के प्राचार्यों में थोड़ा मतभेद है । मूलसंघ के प्राचार्य मध्य में तिथिक्षय होने पर चतुर्थी को ही व्रतारम्भ मान लेते हैं । उनके अनुसार मध्य में तिथिक्षय की अवस्था में पंचमी विद्ध चतुर्थी ग्रहण की गई है । सूर्यास्त के समय में पंचमी तिथि आ ही जाती है । ऐसा नियम भी है कि जब दशलक्षण व्रत के मध्य में किसी तिथि का क्षय होता है तो चतुर्थी तिथि मध्यान्ह के पश्चात पंचमी से विद्ध हो ही जाती है । अतएव मूलसंघ के प्राचार्यों ने एक दिन पहले से व्रत करने का विधान किया है । यद्यपि उदयकाल में रसघटी प्रमाण तिथि को ही व्रत के लिए ग्राह्य बताया है, परन्तु 'त्रिमुहूर्तेषु यत्रार्क उदेत्यस्तं समेति च' श्लोक में च शब्द का पाठ रखा है, जिससे स्पष्ट है कि सूर्यास्त काल में तीन मुहर्त प्रभाव तिथि के होने पर भी तिथि व्रत के लिए ग्राह्य मान ली जाती है । यद्यपि प्राचार्य ने स्पष्ट कर दिया है कि यह विधान नैशिक व्रतों के लिए ही है।
"त्रिषुहूर्तमु यत्रार्कः" श्लोक की संस्कृत व्याख्या में बताया है “या तिथि तिथिरूदयकाले त्रिमुहूर्तादिनागतदिवसेऽपि वर्तमाना तिथि उदयकाले त्रिमुहूर्तादेनागतदिवसेऽपि वर्तमाना तिथिः" प्राचार्य के इस कथन से अस्तकाल में तीन घटी रहने वाली तिथि भी व्रत के लिए ग्राह्य मान ली जाती है । यद्यपि आगे चलकर अपने व्याख्यान में नैशिक व्रतों के लिए अस्तकालीन तिथि का उपयोग करने के लिए कहा गया हैं । फिर भी व्याख्या में दो बार "त्रिमुहूर्तादिनागतदिवसेऽपि वर्तमाना।" पाठ श्रा जाने से यह अर्थ स्पष्ट हो जाता है कि दशलक्षण और अष्टान्हिका व्रत के मध्य में तिथि का अभाव होने पर ग्रहण कर ली जाती है, जिससे नियत अवधि में भी बाधा नहीं पड़ती है।
मध्य में तिथिक्षय होने पर उपर्युक्त व्यवस्था मान ली जायगी। किन्तु आदि