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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका समीचीन/श्रेष्ठ रत्नत्रय धर्म की ध्वजा स्वरूप ( धर्म ) धर्मनाथ जिनेन्द्र की ( शमदमनिलयं ) शान्ति/साम्यभाव तथा दमन रूप संयम भाव के खजाने ( शरण्यं ) संसार के दुखों से पीड़ित समस्त जीवों के शरणभूत ( शान्तिं ) श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्र की ( स्तौमि ) मैं स्तुति करता हूँ।
कुन्धुं सिद्धालयस्थं, श्रमण-पतिमरं त्यक्त - भोगेषु चक्रम् । मल्लिं विख्यात-गोत्रं, खचर-गण-नुतं सुव्रतं सौख्य-राशिम् ।। देवेन्द्रायं नमीशं, हरि-कुल-तिलकं भिचन्द्रं भवान्तम् । पाश्र्व नागेंद्र-बंगं, शरण-मह-मितो वर्धमानं च भक्त्या ।।५।।
अन्वयार्थ-( सिद्धालयस्थं ) सिद्धालय में स्थित ( कुन्थु ) कुन्थुनाथ भगवान् की ( श्रमणपति ) मुनियों के अधिपति ( त्यक्तभोगेषु चक्रं ) त्याग दिया है भोगरूपी बाणों के समूह और हाथ में आये हुए चक्ररत्न को जिन्होंने ऐसे ( अर ) अरनाथ जिनेन्द्र ( कामदेव-चक्री पद के धारी) की । ( विख्यातगोत्रं ) प्रसिद्ध है इक्ष्वाकु वंश है जिनका ऐसे ( मल्लिं) मल्लिनाथ भगवान् की / (खचरगणनुतं ) विद्याधरों के समूह से नमस्कृत ( सौख्यराशिम् ) सुख की राशि ( सुव्रतं ) मुनिसुव्रतनाथ जिनेन्द्र का ( देवेन्द्राय॑ ) देवेन्द्रों के द्वारा पूजित ( नमीशं) नमिनाथ जिनेन्द्र की ( भव अन्तं ) भव के अन्त को प्राप्त ( हरिकुलतिलकं ) हरिवंश के तिलक ( नेमिचन्द्रं ) नेमिनाथ भगवान् की । ( नागेन्द्र वन्धु ) धरणेन्द्र के द्वारा वन्दित, अर्चित ( पार्श्व ) श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्र ( च ) और ( वर्धमानं ) वर्धमान जिनेन्द्र की ( अहं ) मैं ( भक्त्या ) भक्ति से/श्रद्धा से ( शरणं ) शरणं को ( इत: ) प्राप्त होता हूँ।
अञ्चलिका इच्छामि भंते ! चउवीस-तित्थयर- भत्ति-काउस्सग्गो कओ, तस्सालोचेउं पंच-महा-कल्लाण-संपण्णाणं, अट्ठमहा-पाड़िहेर-सयाणं, चउतीसातिसय-विसेस-संजुत्ताणं, बत्तीस-देविंद-मणि-मउड - मत्थयमहिदाणं, बलदेव-वासुदेव-चक्कहर-रिसि- मुणि-इ-अणगारोवगूढाणं, थुइ-सय-सहस्स-णिलयाणं-उस-हाइ-वीर-पच्छिम- मंगलमहा-पुरिसाणं, णिच्च-कालं अंचेमि, पूजेमि, वंदामि, णमस्सामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बेहिलाओ, सुगइ-गमणं, समाहि- मरणं, जिण-गुण-संपत्ति होउ मझं।