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थिमा ज्ञान प्रगोधिनी टीका
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अन्वयार्थ - ( उसहाइवीरपच्छिमे ) वृषभदेव को आदि लेकर अन्तिम तीर्थंकर महावीर पर्यन्त ( चडवीसं ) चौबीस ( तित्थयरे ) तीर्थंकरों को ( वन्दे ) मैं नमस्कार करता हूँ । ( सव्वेसिं ) समस्त ( मुणिगणहरसिद्धे ) मुनि, गणधर और सिद्धों को ( सिरसा ) शिर से अर्थात् शिर झुका कर ( मंसामि ) नमस्कार करता हूँ ॥ १ ॥
भावार्थ - - इस श्लोक में चौबीस तीर्थंकर भगवान् के साथ पंचपरमेष्ठी भगवन्तों को नमस्कार किया गया है।
ये लोकेऽष्ट- सहस्र लक्षण धरा, ज्ञेयार्णवान्तर्गता, सम्यग् जाल हेतु मथनाश्चन्द्रार्क तेजोऽधिकः । । ये साध्विन्द्रसुराप्सरोगण शतै गत प्रणूतार्चितास्,
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तान् देवान् वृषभादि - खीर- चरमान् भक्त्या नमस्याम्यहम् ।। अन्वयार्थ - ( ये ) जो ( लोके ) लोक मैं ( अष्टसहस्त्रलक्षणधरा ) एक हजार आठ लक्षणों के धारक हैं ( ये ) जो ( सम्यक् हेतु ) समीचीन कारण हैं ( भवजालमथनाः } संसाररूपी जाल स्वरूप मिथ्यादर्शन- मिथ्याज्ञान - मिथ्याचारित्र के नाश करने के लिए ( चन्द्र अर्क तेज: अधिका: ) चन्द्र और सूर्य से भी अधिक तेजस्वी हैं, (साधु) गणधर - मुनिगण ( इन्द्र ) इन्द्र (सुर ) देव ( अप्सरागणशतैः ) तथा सैकड़ों अप्सराओं के समूह से ( गीत प्रणुति ये ) जिनकी स्तुति की गई हैं, नमस्कार किया गया है ( अर्चिता: ) पूजा की गई हैं ( तान् ) उन (वृषभादिवीर चरमान् ) वृषभनाथजी को आदि ले अन्तिम महावीर पर्यन्त ( देवान् ) २४ तीर्थंकर देवों को (अहं) मैं ( भक्त्या ) भक्तिपूर्वक ( नमस्यामि ) नमस्कार करता हूँ ।
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भावार्थ - इस श्लोक में मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र को भवजाल कहा है तथा उस जाल के नाशक कारण एकमात्र जिनेन्द्रदेव की भक्ति को बताया है । वे देवाधिदेव चौबीस तीर्थंकर भगवान् गणधर, इन्द्र, देव आदि के समूह से स्तुत्य, पूजित तथा वन्द्य हैं तथा चन्द्र और सूर्य से भी अधिक कान्तियुक्त हैं ।
नाभेयं देवपूज्यं, जिनवर मजितं सर्व लोक प्रदीपम् । सर्वज्ञं संभवाख्यं मुनि-गण- वृषभं नन्दनं देवदेवम् ।।
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