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बिमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
७१ अन्वयार्थ ( भंते !) हे भगवन् ! ( वीर भत्ति ) मैं वीर भक्ति के ( काउस्सग्गो ) कायोत्सर्ग करने की ( इच्छामि ) इच्छा करता हूँ। ( मे ) मेरे द्वारा ( जो कोई ) जो कोई ( राइयो-देवसिओ) रात्रिक-देवसिक क्रियाओं मे ( अइचारो- अणायारो ) अतिचार--अनाचार ( आभोगो... अणाभोगो ) आभोग-अनाभोग ( काइयो-वाइओ-माणसिओ) कायिक-वाचनिकमानसिक ( दुञ्चितीओ ) दुश्चितवन किया हो ( दुब्भासिओ ) दुर्वचनों का उच्चारण किया हो ( दुप्परिणामीओ ) मानसिक दुष्परिणाम किये हों ( दुस्समणीओ ) खोटे स्वप्न देखें हों या खोटा आचारण किया हो ( णाणे ) ज्ञान में ( दंसणे ) दर्शन में ( चरिते ) चारित्र में ( सुत्ते ) आगम में ( सामाइए ) समताभावरूप सामायिक में ( पंचण्हं महव्वयाणं) पांच महाव्रत ( पंचण्हं समिदीणं ) पांच समिति ( तिण्हं गुत्तीणं ) तीन गुप्ति ( छण्हं जीवणिकायाणं ) छह प्रकार के जीवनिकाय ( छण्हं आवासया )ह कावश्यक- सनकी ( विराहणाएं ) विराधना की हो ( अट्टविहस्स कम्मस्स ) आठ प्रकार के कर्मों का ( णिग्यादणार ) निर्घातन अर्थात् नाश करने वाली क्रियाओं के प्रयत्न करने में जो दोष लगे हों ( अण्णहा ) अन्य भी दोष लगे हों यथा( उस्सासिदेण ) उच्छवास से ( वा ) अथवा ( णिस्सासिदेण ) निश्वास से ( वा ) अथवा ( उम्मिसिएण ) उन्मेष अर्थात् आँखों के खोलने से ( वा ) अथवा ( णिम्मिसेण ) निमेष अर्थात् आँखों को बन्द करने से ( वा ) अथवा ( खासिएण) खाँसी लेने से ( वा ) अथवा ( छिकिएण) छींक लेने में ( वा ) अथवा ( जंभाइएण ) जंभाइ लेने में ( वा ) अथवा ( सुहमेहिं ) सूक्ष्म रूप से ( अङ्गाचलाचलेहिं ) अंगों के चलाचल करने में ( दिहिचलालेहिं )
आँखों के चलाचल करने में { एदेहिं सव्वेहिं ) इन सब क्रियाओं में ( असमाहिपत्तेहिं ) असमाधि को प्राप्त हुआ हूँ ( आयारेहि ) आचार व्यवहार में दोष लगा हो, उन सबको दूर करने के लिये कायोत्सर्ग करता हूँ । ( जाव ) जब तक ( अरहंताणं ) अरहंत भगवान् की ( भयवंताणं ) सातिशय ज्ञानधारी पूज्य केवली भगवन्तों की ( पज्जुवासं ) पर्युपासना करता हूँ ( तावकालं ) तब-तक अर्थात् उतने काल पर्यन्त हे भगवन् ! ( पावकम्मं ) पापकर्मों को ( दुच्चरियं ) दुश्चरित्र को/दुर्गति में ले जाने वाली कुचेष्टाओं को ( वोस्सरामि ) छोड़ता हूँ।