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__ विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
६९ ( प. वा-यति : पूर्ग निर्माण को मुना माहुतकृत्य हो जाते हैं ( सव्वदुक्खाणमंतं करेति ) शारीरिक, मानसिक व आगन्तुक सभी प्रकार के दुखों का अन्त करते हैं ( परिबियाणंति ) इस निग्रंथ लिंग के द्वारा ही सम्पूर्ण पदार्थों को जानते हैं { समणोमि ) मैं मुनि श्रमण होता हूँ ( संजदोमि ) मैं संयत होता हूँ अर्थान् मैं प्राणी संयम व इन्द्रिय संयम में तत्पर होता हूँ { उवरदोमि ) उपरत होता हूँ अर्थात् विषय भोगों से विरक्त होता हूँ ( उवसंतोमि ) उपशांतभाव अर्थात् राग-द्वेष आदि भावों से उपशान्त होता हूँ( उवहिं ) उपधि/परिग्रह ( णियडि ) निकृति/वंचना ( माण ) मान ( माय ) माया/कुटिलता ( मोस ) असत्य 'भाषण (मिच्छाणाणे ) मिथ्याज्ञान ( मिच्छादसण ) मिथ्यादर्शन ( च ) और ( मिच्छाचरित्तं ) मिथ्याचारित्र इनसे ( पडिविरदोमि ) विरक्त होता हूँ{ सम्मणाण ) सम्यज्ञान ( सम्मदसण) सम्यग्दर्शन ( च ) और ( सम्मचरितं ) सम्यक्चारित्र में ( रोचेमि ) श्रद्धान करता हूँ ( जिणवरेहि पण्ण जं) जिनेन्द्र देव के कहे गये जो तत्त्व हैं उनका ही श्रद्धान करता हूँ ( इत्थ ) इस प्रकार ( मे ) मेरे द्वारा ( राइओदेवसिओ ) रात्रिक-दैवसिक क्रियाओं में ( जो कोई ) जो भी कोई ( अइयारो) अतिचार ( अणायारो ) अनाचार हुए हों ( तस्स में ) तत्संबंधी मेरे ( दुक्कडं मिच्छा ) दुष्कृत/समस्त पाप मिथ्या हो, निष्फल हों।
पलिक्कमामि भंते ! सव्यस्स, सव्वकालियाए, इरियासमिदीए, भासासमिदीए, एसणा-समिदीए, आदाण-निक्खेवण-समिदीए, उच्चारपस्सवण-खेल-सिंहाणय-विडि-पइ-हाणि समिदीए, मण-गुत्तीए, वचि-गुत्तीए, काय-गुत्तीए, पाणा दिवादादो-वेरमणाए, मुसावादादोवेरमणाए, अदिण्ण-दाणादो-वेरमणाए, मेहुणादो-वेरमपाए, परिंग्गहादो. वेरमणाए, राइभोयणादो-वेरमणाए, सव्व-विराहणाए, सव-धम्म. अइक्कमणदाए, सव्व-मिच्छा-चरिथाए, इत्थ मे जो कोई राइयो ( देवसिओ) अइचारो अणाचारों तस्स मिच्छा मे दुक्कडं। ___ अन्वयार्थ ( भंते! ) हे भगवन् ! ( सव्वस्स ) सम्पूर्ण ( अइयारो) अतिचारों का ( सनकालियाए ) सार्वकालिक अर्थात् सम्पूर्ण काल में होने वाली ( इरियासमिदीए ) ईर्या समिति में ( भासा-समिदीए ) भाषा समिति में ( एसणासमिदीए ) एषणा समिति में ( आदाणणिक्खेवणसमिदीए ) आदान-निक्षेपण समिति में (उच्चारपस्सवणखेलसिंहाणयत्रियडिपइट्ठावण समिदीए ) मल-मूत्र, खखार, नासिका मल, शरीर मल आदि के निक्षेपण