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________________ विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका ( दिदिविप्परियासियाए ) दृष्टि विपर्यासिका में ( मणिविप्परियासियाए ) मन विपर्यासिका में ( वचि विपर्यासियाए ) वचन विपर्यासिका में ( काय विपरिया।।.! ) का निभरिका में ( भोगण विप्परियासियाए ) भोजन विपर्यासिका में ( उच्चावयाए ) उच्च्यावजात में 1 ( सुमणदंसविपरियासियाए ) म्वप्न दर्शन विपर्यासिका में ( गाणाचिंतासु ) नाना प्रकार चिंताओं में ( विसोतियासु ) बार-बार सुनने में ( एत्य ) इस प्रकार ( में ) मेरे द्वारा ( जो कोई ) जो भी कोई ( राइओ-देवसिओ) रात्रिक-दिवस में ( अइचारो) अतिचार ( अणाचारो) अनाचार हुए हों ( तस्स ) तत्सम्बन्धी ( मे ) मेरे । दुक्कई ) दुष्कृत ( मिच्छा ) मिथ्या हों । इसीलिये ( पडिक्कमामि ) मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। भावार्थ- हे भगवन् ! स्वप्न में मेरे द्वारा व्रतों की विराधना की गई हो. विपरीत परिणति हुई हो, उनका मैं परिशोधन करता हूँ। पूर्वरत अर्थात् गृहस्थावस्था में जिसका अनुभव किया हो उसमें, पूर्वक्रीड़ा अर्थात् पूर्व का गृहस्थावस्था में क्रीड़ा की हो उसमें । स्त्री विपर्यासिका-याने स्त्री के विषय में विपरीतता सेवन नहीं करने पर भी स्वप्नादि में दोष का होना । द्रष्टि के विषय में विपरीतता-स्त्री के अवयव मुंह आदि को देखना तथा नहीं देखने पर भी देखने की अभिलाषा होना । मन की विपरीततास्त्री आदि के विषय में उनके नहीं होने पर भी उनके होने की कल्पना करना । वचन विपरीतता-स्त्री संबंधी वार्तालापादि के नहीं होने पर भी गगादि से युक्त वार्तालापादि करने का भाव करना । काय की विपरीततागोद में स्त्री आदि के नहीं होने पर भी मैं उसी अवस्था में स्थित हूँ ऐसा विचार करना । भोजन विपरीतता-भोजन नहीं करते हुए भी मैं भोजन कर रहा हूँ ऐसी विपरीत धारणा करना । उच्च्यावजात अर्थात् स्त्री के रागवश वीर्य के सवलन के कारण होने वाला दोष [ स्त्री के अनुरागवश वीर्यस्खलन को संस्कृत में उन्च्याव कहते हैं ] स्वप्नदर्शन विपरीतता में-स्वप्न में क्रिी स्त्री आदि को देखने का विपर्यास हुआ हो । नाना चिन्ताओं से अर्थात् पूर्व में भागे हुए भोगों का अनेक प्रकार स्मरण करने से । विसोतिया अर्थात उनको बार-बार सुनने से । इस प्रकार उपर्युक्त स्वप्न संबंधी दोषों से व्रता में अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार रूप से कोई भी दोष लगा हा । उस संबंधी मेरा दुष्कर्म मिथ्या हो । मैं निदोष बनने की भावना में ही प्रतिक्रमण कर रहा हूँ।
SR No.090537
Book TitleVimal Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSyadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size8 MB
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