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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
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अन्वयार्थ - ( नित्यं निःस्वेदत्वं ) कभी पसीना न आना ( निर्मलता ) कभी मल-मूत्र नहीं होना ( च क्षीरगौररुधिरत्वं ) दूध के समान सफेद खून का होना (स्वाद्याकृति संहनने ) समचतुरस्रसंस्थान व वज्रवृषभनाराच संहनन का होना ( सौरुष्यं ) सुन्दर रूप का होना ( सौरभं च ) सुगन्धमय शरीर का होना ( सौलक्ष्यम् ) उत्तम लक्षणों से युक्त होना ( अप्रमितवीर्यता च ) और अतुल्य बन ( प्रियहितवादित्वं ) प्रिय व हितकारी मधुर वचनो का बोलना ( दस विख्याता स्वतिशय धर्माः ) ये १० प्रसिद्ध अतिशय व ( अन्यनत् आमित गुणस्य ) अन्य अपरिमित, अनन्त गुण ( स्वयंभुवः देहस्य ) तीर्थंकर के शरीर के में ( प्रथिता ) कहे गये हैं।
भावार्थ - तीर्थंकर भगवान् जन्म से दस अतिशय के धारक होते हैं - १. शरीर में कभी भी पसीना नहीं आना २ मल-मूत्र नहीं होना ३. दूध के समान सफेद खून का होना ४. समचतुरस्त्रसंस्थान ५. वज्रवृषभनाराचसंहनन ६. सुन्दर रूप ७. सुगन्धित शरीर ८. शरीर में १००८ लक्षणों का होना ९. अंतुल्यंबल और १० हित- मित-प्रिय वचनों का बोलना । इनके अलावा भी वे अन्य अनन्त गुणों के स्वामी होते ।
जो विशेषता दूसरों में नहीं पायी जावें, वह अतिशय कहलाता है। तीर्थंकरों के देश अतिशय जन्म काल से ही होते हैं अतः इन्हे जन्मातिशय कहते हैं ।
केवलज्ञान के दश अतिशय
गव्यूति - शतचतुष्टय- सुभिक्षता गगन गमनमप्राणिवधः । भुक्त्युपसर्गाभाव -श्चतुरास्यत्वं च सर्व-विद्येश्वरता ||४०|| अच्छायत्व- मपक्ष्म-स्पन्दश्च सम- प्रसिद्ध-नख- केशत्वम् । स्वतिशय गुणा भगवतो, घाति- क्षयजा भवन्ति तेऽपि दशैव । । ४१ । ।
अन्वयार्थ --- ( गव्यूति-शत चतुष्टय सुभिक्षता ) चार सौ कोश तक सुभिक्ष का होना ( गगन गमनम् ) आकाश में गमन होना ( अप्राणिवध: ) किसी जीव का वध न होना / हिंसा का अभाव ( भुक्ति उपसर्ग अभाव: ) कक्लाहार का नहीं होना, उपसर्ग का नहीं होना ( चतुः आस्यत्वं ) चार मुख दिखना ( सर्व विद्या- ईश्वरता ) सब विद्याओं का स्वामी होना
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