SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 413
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका ४०९ अन्वयार्थ—तीनों लोकों में ( त्रिभुवन-सुर समिति-समय॑मानसत्प्रतिमानि ) तीनों लोकों के देवों के द्वारा पूजा की जाने वाली वीतराग प्रतिमाएँ ( सतां जिनेशिनां ) वीतराग जिनेन्द्र के ( अकृत्रिमाणि अथ भवनानि ) अकृत्रिम जिनालय ( नव नव ) नौ से गुणित नौ अर्थात् ९४९=८१ ( चतु:शतानि च ) और चार सौ अर्थात् ४८१ ( सहस्रगुणिता: सप्तनवतिः च) और हजार से गुणित संतानवे अर्थात् संतानवे हजार ( पञ्चवियत् प्रहताः षट् च पञ्चाशत् ) और पाँच शून्यों से गुणित छप्पन अर्थात् ५६००००० छप्पन लाख ( पुनः अत्र अष्टो कोट्य: ) पुन: आठ करोड़ अर्थात् ८ करोड़ ५६ लाख ९७ हजार ४८१ ( एतावन्ति एव प्रोक्ता;) इतने ही कहे गये हैं। भावार्थ तीनों लोकों में चतुर्णिकाय के समस्त देवों से पूज्य जिनेन्द्र देव के अधोलोक सम्बन्धी ७७२०००००, मध्यलोक सम्बन्धी ४५८ व ऊर्ध्वलोक सम्बन्धी ८४९७०२३ अकृत्रिम चैत्यालय हैं अत: इस प्रकार कुल मिलाकर ८५६९७४८१ अकृत्रिम चैत्यालय में तथा व्यन्तर व ज्योतिषी देवों के विमानों में असंख्यातासंख्यात चैत्यालय हैं। इन सभी जिनालयों में वीतराग मनहर जिनप्रतिमाएं विराजमान हैं। ___ इन तीन लोक संबंधी ८५६९७४८१ चैत्यालयों में जिनप्रतिमाओं की संख्या सवकोडिसया पणवीसा लक्खा, तेवण्ण सहस्स सगवीसा। नवसय तह अडयाला जिणपडिमाकिट्टिमां वंदे ।। ९२५५३२७९४८ नौ सौ पच्चीस करोड़, त्रेपन लाख, सत्ताईस हजार नौ सौ अड़तालीस हैं। इन समस्त अकृत्रिम प्रतिमाओं की मैं वन्दना करता हूँ। _मध्यलोक के ४५८ चैत्यालय वक्षार-रुचक-कुण्डल-रौप्य-नगोत्तर-कुलेषुकारनगेषु । कुरुधु च जिनभवनानि,त्रिशतान्यधिकानि तानि षड्विंशत्या ।।१०।। अन्वयार्थ-( वक्षार-रुचक-कुण्डल-रौप्यनग-उत्तर-कुल-इषुकारनगेषु ) वक्षारगिरि, रुचकगिरि, कुण्डलगिरि, रजताचल/विजयार्ध, मानुषोत्तर,
SR No.090537
Book TitleVimal Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSyadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy