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________________ ३७४ विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका श्री समाधि भक्ति प्रिय भक्तिः , स्वात्माभिमुख संवित्ति लक्षणं श्रुत चक्षुषा, पश्यन्पश्यामि देव त्वां केवलज्ञान चक्षुषा । । १ । । अन्वयार्थ --( देव ! ) हे बीतराग देव ( स्व आत्मा - अभिमुख संवित्ति - लक्षणं ) अपनी आत्मा के संवेदन रूप लक्षण से युक्त ( त्वां ) आपको ( श्रुत-चक्षुषा ) श्रुतज्ञानरूपी चक्षु से ( पश्यन् ) देखते हुए ( केवलज्ञान चक्षुषा पश्यामि ) अब आपको केवलज्ञान चक्षु से मण्डित देख रहा हूँ । - भावार्थ - हे वीतराग जिनेन्द्र देव स्वकीय आत्मा के संवेदन रूप लक्षण से युक्त अथवा स्वसंवेदन लक्षण युक्त आपको श्रुतज्ञान के माध्यम से देखते हुए, आपके सामान्य स्वरूप का चिन्तन करता हुआ, मैं आज आएकी साम्यात केवलज्ञान गण्डित अवस्था का ही दर्शन कर रहा हूँ । ऐसा मुझे अनुभव में आ रहा है। अथवा . जो भव्य जीव श्रुतज्ञान रूप चक्षु से आगम के अनुसार आपकी आराधना करता है, वह केवलज्ञानरूपी नेत्र से सर्वलोक का अवलोकन करता हैं अर्थात् केवलज्ञान को अवश्य प्राप्त करता है । शास्त्राभ्यासो जिनपति जुतिः, संगति सर्वदार्यैः, सद्वृत्तानां गुणगण - कथा, दोषवादे च मौनम् । सर्वस्यापि प्रियहितवचो भावना चात्मतत्त्वे, संपद्यन्तां मम भवभये यावदेतेऽपवर्गः || २ ॥ अन्वयार्थ - ( शास्त्र - अभ्यासः ) शास्त्रों का अभ्यास ( जिनपतिनुति: ) जिनेन्द्र भगवान् की स्तुति / नमस्कार ( सर्वदा ) हमेशा ( आर्यै: संगति ) सज्जन श्रेष्ठ आर्य पुरुषों के साथ समागम ( सद्वृत्तानां गुण - गणकथा ) सदाचारी/ संयमियों/ सम्यक्चारित्रधारियों के गुणों की चर्चा ( दोषवादे च मौन) और उन चारित्रधारियों के दोष वर्णन करने में मौन ( सर्वस्यापि प्रिय-हित- वचः ) समस्त जीवों में प्रिय हितकर वचन (च) और ( आत्मतत्त्वे भावना ) आत्मतत्त्व की भावना ( एते ) ये सब बातें ( यावत् अपवर्गः ) जब तक मुक्ति / मोक्ष प्राप्त होता है तब तक ( मम ) मुझे ( भवभवे ) प्रत्येक भत्र में सम्पद्यन्ताम् ) प्राप्त होना रहें।
SR No.090537
Book TitleVimal Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSyadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size8 MB
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