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________________ विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका ३४८ होमनिरता ) व्रतरूपी मंत्रों से कर्मों का होम करने में निरत / लगे हुए हैं (ध्यानाग्निहोत्राकुलाः ) ध्यानरूपी अग्नि के कर्मरूपी हवी / ईंधन को देते हैं। ( षट्कर्माभिताः तपोधनधनाः ) जो तपोधन, छह आवश्यक कर्मों में सदा लगे रहते हैं तथा तपरूपी धन जिनके पास है ( साधुक्रियाः साधवः ) पुण्य कर्मों के करने में सदैव तत्पर रहते हैं ( शीलप्रावरणा ) अठारह हजार शील ही जिनके ओढने को वस्त्र हैं ( गुणप्रहरणाः ) छत्तीस मूलगुण व चौरासी लाख उत्तरगुण ही जिनके पास शस्त्र हैं ( चन्द्र-अर्क तेज: अधिका: ) जिनका तेज सूर्य और चन्द्रमा से भी अधिक हैं ( मोक्षद्वार कपाट पाटनभटाः ) मोक्ष के द्वारको उघाड़ने / खोलने में जो शूर हैं ऐसे ( साधवः ) आचार्य परमेष्ठी / साधुजनों (मां ) मुझ पर ( प्रीणंतु ) प्रसन्न होवें । भावार्थ — जो आचार्य परमेष्ठी व्रतरूपी मंत्रों से कर्मों का होम करते हैं, ध्यानरूपी अग्नि में हैं, षट् आवश्यक क्रियाओं में सदा तत्पर रहते हैं, तपरूपी धन जिनका सच्चा धन है, पुण्य कर्मों में कुशल हैं, अठारह हजार शीलों की चुनरिया जिनका वस्त्र हैं, मूल व उत्तर- गुण जिनके पास शस्त्र हैं, सूर्य और चन्द्र का तेज भी जिनके सामने लज्जित हो रहा है, मोक्षमंदिर के द्वार को खोलने में शूर हैं, ऐसे वे तपोधन मुझ पर प्रसन्न होवें । गुरवः पान्तु नो नित्यं ज्ञानदर्शन नायकाः । चारित्रार्णव गंभीरा, मोक्षमार्गोपदेशकाः ।। ५ ।। अन्वयार्थ - जो ( ज्ञानदर्शन नायकाः ) सम्यक्ज्ञान व सम्यग्दर्शन के स्वामी हैं, ( चारित्र ) सम्यक्चारित्र के पालने में ( आर्णवगंभीरा ) समुद्र के समान गंभीर हैं ( मोक्षमार्गोपदेशका ) भव्यों को मुक्तिमार्ग का उपदेश देने वाले हैं वे ( गुरवः ) आचार्यदेव / गुरुदेव ( वो ) हमारी (पान्तु ) रक्षा करें। भावार्थ – सम्यक्ज्ञान व दर्शन के स्वामी, चारित्र पालन में समुद्रवत् गंभीर, मोक्षभागोंपदेशक आचार्यगुरुदेव हमारी रक्षा करें। प्राज्ञ: प्राप्तसमस्त शास्त्र हृदय, प्रव्यक्तलोकस्थितिः । प्रास्ताश: प्रतिभापर प्रशमवान् प्रागेव दृष्टोत्तरः ||
SR No.090537
Book TitleVimal Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSyadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size8 MB
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