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________________ ३४३ विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका बहुप्रायश्चित्त को ग्रहण करता है अथवा जिन मुनियों का समुदाय सदा दूषित आहार को ग्रहण करता है। जो सदा व्रत, उपवास आदि के द्वारा क्षुभादि परीषहों को जीतने में ही लगे रहते हैं। जो निरन्तर प्रमादरहित हो अपनी क्रियाओं में गतिशील रहते हैं, उन सदा निष्प्रमादी आचार्य को मेरा नमस्कार है। अचलाव्यपेतनिद्रान, स्थानयुतान्कष्टदुष्टलेश्या हीनान् । विधिनानाश्रितवासा-नलिप्तदेहान्दिनिर्जितेन्द्रियकरिणः ।। ६ ।। __ अन्वयार्थ--जो ( अचलान् ) उपसर्ग-परीषहों के आने पर भी अपने गृहीत संयम से कभी चलायमान नहीं होते हैं ( व्यपेतनिद्रान् ) जो विशेषकर निद्रारहित होते हैं अथवा जो विशेष नहीं मात्र अल्प निद्रा लेते हैं ( स्थानयुतान् ) खड़े-खड़े कायोत्सर्ग करते हैं ( कष्ट-दुष्ट-लेश्या हीनान् ) जो अनेक प्रकार के दु:खों को देनेवाली कष्टदायी कृष्णादि अशुभ लेश्याओं से रहित हैं ( विधि-नानाश्रित-वासान् ) जो चरणानुयोग की विधि के अनुसार पर्वत, मंदिर, गुफा, शून्यगृह आदि नाना स्थानों में निवास करते हैं ( अलिप्त-देहान् ) जिनका शरीर केशर-चन्दन-भस्म आदि के लेप से रहित है तथा (विनिर्जित-इन्द्रियकरण: ) जिन्होंने इन्द्रियरूपी हाथियों को जीत लिया है, उन आचार्य परमेष्ठी भगवन्तों को मैं मन-वचन काय से नमस्कार करता है। हाय भावार्थ-जो घोर उपसर्ग परीषहों को जीतने में जो पर्वत समान अचल हैं, प्रमाद, आलस्य, निद्रारहित हैं, कायोत्सर्ग सहित हैं, कष्टकर, दुःख देनेवाली नीच गति में ले जाने वाली कृष्ण-नील-कापोत ऐसी तीन अशुभ लेश्यारूपी परिणामों से जो रहित हैं, जिन्होंने चरणानुयोग में कथित विधि अनुसार पर्वत-मंदिर-गुफा आदि अनेक स्थानों में निवास किया है अथवा विधिवत् घर का त्याग कर "अनाश्रितवास" किया है जो घर रहित हैं, जिनका शरीर केशर-चन्दन-कस्तूरी आदि सुगंधित द्रव्यों या भस्म आदि से लिप्त नहीं है, जो इन्द्रियरूपी हाथियों को वश कर विजेता कहलाते हैं उन आचार्य परमेष्ठियों को मेरा शतशत नमन स्वीकार हो । अतुलानुत्कुटिकासान्विविक्त चित्तानखंडितस्वाध्यायान् । दक्षिणभावसमप्रान्, व्यपगतमदरागलोभशठमात्सर्यान् ।। ७ ।।
SR No.090537
Book TitleVimal Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSyadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size8 MB
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