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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
३२५ मुनिराज का अपनी शक्ति को न छिपाकर तप में प्रवृत्ति करना, शक्ति को नहीं छिपाना यही वीर्याचार है । जिस प्रकार छिद्ररहित नौका समुद्र से पार कर गन्तव्य को पहँचाती है, उसी प्रकार यह वीर्याचार संसार-सागर से पार करने वाली छिद्ररहित नौका है। इसका आश्रय लेने वाले यति/मुनि गन्तव्य स्थल मुक्ति को प्राप्त होते हैं । यह वीर्याचार अनेक श्रेष्ठ गुणों से युक्त है, साधु पुरुषों/सज्जनों से पूज्य है। इस वीर्याचार को मैं नमस्कार करता हूँ।
चारित्राचार का स्वरूप सिस्नः सत्तमगुप्तयस्तनुमनो, भाषानिमित्तोदयाः, पञ्चेर्यादि-समाश्रयाः समितयः पञ्चव्रतानीत्यपि । चारित्रोपहितं त्रयोदशतयं, पूर्व न दष्टं परैराचारं परमेष्ठिनो जिनपते, वीरं नमामो वयम् ।।७।।
अन्वयार्थ—( तनुभाषा निमित्त उदयाः ) शरीर, मन और वचन के निमित्त उदय होने वाली ( तिस्रः ) तीन ( सत्तमगुप्तयः ) श्रेष्ठ गुप्तियाँ ( ईयादि समाश्रयाः ) ईर्यागमन आदि के आश्रय से होने वाली ( पञ्चसमितयः ) पाँच समितियाँ ( अपि ) और ( पञ्चव्रतानि ) अहिंसा आदि पाँच महाव्रत ( इति ) इस प्रकार ( त्रयोदशतयं चारित्र उपहितं ) तेरह प्रकार के चारित्र से सहित ( आचारं ) आचार को ( वयं ) हम ( नमामः ) नमस्कार करते हैं जो ( परमेष्ठिनः ) परम पद में स्थित ( वीरं जिनपते: ) महावीर तीर्थकर से ( परैः पूर्वं ) पूर्व अन्य तीर्थंकरों के द्वारा ( न दृष्टम् ) नहीं देखा गया अथवा नहीं कहा गया ।
भावार्थ-मन-वचन-काय तीन प्रकार की श्रेष्ठ गुप्तियाँ, ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण और प्रतिष्ठापना पाँच समितियाँ और अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह पाँच महाव्रत ये १३ प्रकार का चारित्राचार है। इन १३ प्रकार के चारित्राचार से पूर्ण, इनसे सहित आचार को हम नमस्कार करते हैं। यहाँ पूज्यपाद आचार्य के अनुसार इन तेरह प्रकार के चारित्राचार का उपदेश अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर स्वामी ने ही दिया, उनके पूर्व तेईस तीर्थंकरों ने नहीं दिया । क्योंकि महावीर भगवान् के समय के जीव वक्रपरिणामी हो गये हैं, जबकि शेष तीर्थंकरों