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________________ विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका ३२३ वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश । उमास्वामि आचार्य ने इन तपों की उत्तरोत्तर अधिक गुणाधिक्यता को ध्यान में रखते हुए यही क्रम दिया है, यहाँ छन्द की मर्यादा/पराधीनता-वश क्रम का व्यतिक्रम हुआ है। __ बाह्य तप को बाह्य कहने का प्रथम हेतु है—१. इन तपों की प्रवृत्ति बहिरंग में देखी जाती है तथा २. इन तपों को संयम मार्ग से दूर रहने वाले अन्यमति जीव भी करते देखे जाते हैं। ___स्वामी समन्तभद्रआचार्य ने बहिरंग तप को अन्तरङ्ग तप की वृद्धि का हेतु कहा है-"आभ्यन्तरस्य तपसः परिवृहणार्थ बाह्यं तपः परमदुश्चर माचरस्त्वम्" अर्थात् हे कुन्थुनाथ प्रभो ! आपने अन्तरङ्ग तप की वृद्धि के लिये अत्यन्त कठोर ऐसा बाह्य तप किया था। इन छहों प्रकार के बहिरंग तपों की पूज्यपाद आचार्य स्तुति करते हैं। अन्तरङ्ग तपों का वर्णन स्वाध्यायः शुभकर्मणश्युतवतः संप्रत्यवस्थापनम्, ध्यानं व्यापृतिरामयाविनि गुरौ, वृद्धे च बाले यतौ। कायोत्सर्जन सक्रिया विनय-इत्येवं तपः षड्वियं, वंदेऽभ्यन्तरमन्तरंग बलवद्विद्वेषि विध्वंसनम् ।।५।। अन्वयार्थ ( स्वाध्यायः ) स्वाध्याय करना ( शुभकर्मण: च्युतवत: ) शुभ क्रियाओं से च्युत होने वाले अपने आपको ( संप्रति-अवस्थापनं ) पुनः सम्यक् प्रकार से स्थिर करना ( ध्यानं ) धर्म्य-शुक्लध्यान करना ( आमयाविनि ) रोगी ( गुरौ ) गुरु ( वृद्धे च बाले यतौ ) वृद्ध और अल्पवय वाले मुनियों के विषय में ( व्यापृति ) सेवा/वैय्यावृत्य आदि करना ( कायोत्सर्जन सत्क्रिया ) शरीर से ममत्व छोड़कर कायोत्सर्ग की क्रिया करना ( विनय ) विनय ( इत्येवं ) इस प्रकार ( अन्तरङ्ग-बलवत्-विद्वेषिविध्वंसनं ) अन्तरङ्ग के बलवान् काम-क्रोध-मान-माया आदि शत्रुओं को नष्ट करने वाले ( षट्-विधं ) छह प्रकार के ( अभ्यन्तरं तपः ) अन्तरङ्ग तप को ( वन्दे ) नमस्कार करता हूँ | भावार्थ—उमास्वामि आचार्य ने तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ में अन्तरङ्ग तपों
SR No.090537
Book TitleVimal Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSyadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size8 MB
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