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________________ ३०२ विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका का कारण होने से श्रुतज्ञान का माजन/पात्र हैं; उस ( आभिनिबोधिकं ) आभिनिबोधिक/मतिज्ञान को ( वन्दे ) मैं नमस्कार करता हूँ। भावार्थ—मतिज्ञान को आभिनिबोधिक ज्ञान भी कहते हैं। तत्त्वार्थसूत्र ग्रंथ मे उमास्वामि आचार्य ने लिख भी है---"मति: स्मृति: संज्ञा चिन्ताभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम्'' [ त.सू.अ.१/ सू.१३ ] मतिज्ञान की आभिनिबोधिक यह सार्थक संज्ञा है। अभि का अर्थ है--ज्ञान के योग्य देश-काल और ग्रहण करने योग्य सामग्री को “अभि" कहते हैं। “नि'' शब्द का अर्थ है नियम । जैसे चक्षु आदि के द्वारा रूप आदि का ज्ञान । पञ्चेन्द्रियों से जो नियमित रीति से ज्ञान होता है वह “निबोध' कहलाता है । इस प्रकार योग्य क्षेत्र पर योगय काल में निर्दोष इन्द्रियों से होने वाला पदार्थों का ज्ञान “आभिनिबोधिक" ज्ञान है । मतिज्ञान सम्यग्ज्ञान का प्रथम भेट हैं। इसले ३६, भेद हैं । बहुबहुविध आदि १२ पदार्थ, अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा ये ४ ज्ञान = १२४४=४८ । यह ज्ञान अर्थावग्रह-व्यञ्जनावग्रह की अपेक्षा दो प्रकार का है। उनमें अर्थावग्रह ५ इंद्रियों मन से उत्पन्न होता है अत: ४८५६-२८८ भेद हुए । व्यञ्जनावग्रह में मात्र अवग्रह ही होता है तथा यह ४ इन्द्रियों से ही होता चक्षु इन्द्रिय व मन से नहीं होता है अतः १२४४=४८ । २८८+४८=३३६ मतिज्ञान के भेद हैं । पतिज्ञान अनेक ऋद्धियों से शोभायमान है। दिगम्बर साधाओं के तपश्चरण के फल स्वरूप विविध ऋद्धियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। यथा कोष्ठबुद्धि ऋद्धि-जिस प्रकार भंडारी एक ही कोठे में अनेक प्रकार के धान्य आदि वस्तुएँ रखता है उसी प्रकार इस बुद्धि के धारक ऋषिगण अपनी बुद्धि में अनेक प्रकार के ग्रन्थों को धारण कर रखते हैं | धारणा को कभी नष्ट नहीं होने देते हैं । कोष्ठ सम बुद्धि की प्राप्ति को 'कोष्ठबुद्धि' कहते हैं। बीज बुद्धि ऋद्धि-खेत में बोया एक बीज ही बहुत से धान्य को उत्पन्न कर देता है वैसे ही एक पद के ग्रहण से अनेक पदों का ज्ञान हो जाय उसे बीज बुद्धि ऋद्धि कहते है।
SR No.090537
Book TitleVimal Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSyadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size8 MB
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